गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6सामान्यतः पूज्य के अनन्त महिमान्वित स्वरूप एव स्वात्मज्ञान होने पर ही पूजा सम्भव है। देहमात्राभिमानी पूजा में समर्थ नहीं, देहातिरिक्त होकर ही पूजा सम्भव हो सकती है। जैमियीसूत्र की व्याख्या करते हुए शबरस्वामी देहातिरिक्त आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करते हैं। भट्ट कुमारिल कहते हैं - ‘इत्याह नास्तिक्यनिराकरिष्णुरात्मास्तितां भाष्यकृदत्र युक्त्या। नास्तिकता का निराकरण करते हुए युक्ति से आत्मा की अस्तिता, अस्तित्व सिद्ध किया गया है। देहमात्र आत्मा नहीं है, आत्मा देहभिन्न है। वेदान्त-विचार से इसका वैशद्य, अत्यन्त स्पष्टीकरण होता है। पूजा के अन्तर्गत भक्त अपने आराध्य की विभिन्न सामग्रियों से पूजा करता है। ‘अथ बहुमणिमिश्रैमौंक्तिकैश्चावकीर्य, त्रिभुवनकमनीयैः पूजयित्वा च वस्त्रेः। विविध प्रकार के मणि-मौक्तिक, दिव्य वस्त्र आदि समर्पित कर पूजान्त में कनक वृष्टि द्वारा दक्षिणा समर्पित की जाती है। भगवदनुग्रहवशात् ही भक्त सम्पूर्ण पूजा योग्य सामग्री का सम्पादन भी कर पाता है अतः कहा जाता है ‘त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पितम्। अनन्तकोटिब्रह्माण्डनायक, सर्वाधिष्ठान, विश्वंभर, परात्पर, परब्रह्म प्रभु द्वारा प्रदत्त वस्तु को ही प्रभु के प्रति समर्पित कर उनकी पूजा की जाती है। मानसिक संकल्प द्वारा उनको सर्वोत्तम, उत्तमजाति, उत्तम वस्तु प्रदान करते हुए भी व्यवहारतः अपनी शक्तिभर, सामर्थ्यानुसार ही करना चाहिए तथा ‘वित्तशाठ्यविवर्जितं’ वित्तशाठ्य विवर्जित है। |