गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 192

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 5

‘एष सर्वस्वभूतस्तु परिष्वंगो हनूमतः।
मया कालमिमं प्राप्य दत्तस्तस्य महात्मनः।।’[1]

श्री नागोजी भट्ट कहते हैं राघवेन्द्र रामचन्द्र ने स्वालिंगन द्वारा मानो हनुमान् जी को अचिन्त्य, अनन्त, विशुद्ध ब्रह्मानन्द सुधानिधि ही उँडेल दी, अर्पित कर दी। साक्षात् फल में फलान्तर की कल्पना भी सम्भव नहीं अतः भक्तजनों के लिये भगवत्-पादारविन्द, हस्तारविन्द का विन्यास ही परम पुरुषार्थ है। जैसे सर्वतः संप्लुत एक स्थानीय मधुर महासमुद्र के प्राप्त हो जाने पर वापी, कूप, तड़ागादि का प्रयोजन स्वतः परिपूर्ण हो जाता है वैसे ही भगवत्-पादारविन्द हस्तारविन्द संश्लेषजन्य आनन्द-समुद्र में अन्य सम्पूर्ण सुख-लव-कामनाएँ भी अन्तर्निहित हो जाती हैं; साथ ही, तत्त्व साक्षात्कार के कारण सम्पूर्ण अन्य स्पृहाओं का ही बाध हो जाता है। जैसे वन्ध्यापुत्र की परिकल्पना सम्भव नहीं वैसे ही अधिष्ठान-साक्षात्कार की अपरोक्ष अनुभूति होने पर विश्व-प्रपन्च एवं तद्विषयिणी कल्पनाओं का अवकाश भी असम्भव हो जाता है।

आचार्यगण शंका करते हैं-योगिध्येय पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण परस्त्री-संस्पर्श-हेतु क्योंकर उद्यत हो सकते हैं? इस श्लोकविशेष में प्रयुक्त विशेषण पद ‘श्रीकरग्रहम्’ ही इस शंका का समाधान है। ‘श्रियः लक्ष्म्याः करं गृह्लाति तत् श्रीकरग्रहम्।’ इस हस्तारविन्द ने ही श्रीकर-पंकज का ग्रहण किया है; तात्पर्य कि भगवान् लक्ष्मी का पाणिग्रहण करने के कारण गृहस्थ हैं। जिसको लक्ष्मी के पाणिग्रहण में संकोच नहीं हुआ उसको हमारे सिर पर अपने हस्तारविन्द-विन्यास में क्यों संकोच है?

योगोन्द्र, मुनीन्द्र अमलात्मा परमहंस द्वारा ध्येय, ज्ञेय, परमाराध्य अनन्त कोटि ब्रह्माण्डनायक, अखिलेश्वर भगवान् ही ऐश्वर्य एवं माधुर्य के अधिपति हैं; भगवती महालक्ष्मी भी अनन्तकोटिब्रह्माण्डाधीश्वरी एवं सम्पूर्ण ऐश्वर्य-माधुर्य की अधिष्ठात्री हैं एतावता भगवान् श्रीमन्नारायण से अन्य कोई भगवती लक्ष्मी के पाणिग्रहण में समर्थ ही नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वा. रा. 6। 1। 13

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
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