गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 2‘शरदुदाशये’ शरत्कालीन स्वच्छ जलाशय सदृश शान्त उपरत तितिक्षु समाहित श्रद्धान्वित चित्त में ही ‘दृशा दर्शनेन भगवद्दर्शनेन’ भगवद्-दर्शन एवं साक्षातकार से अन्तःकरण की विषयाकाराकारित वृत्तियाँ तथा अनिर्वचनीय अज्ञान दोनों का बाधन कर लेने वाले विज्ञ साधक का जगत में पतन अथवा बन्धन नही होता। अज्ञान एवं प्रपन्च का स्फुरण ही बन्धनकारक है। कारणभूत अज्ञान, सुषुप्ति स्वप्न एवं जाग्रत् तीनों ही अवस्थाओं में अनुभूत होते हुए भी निद्राकाल में ही सर्वाधिक अनुभूयमान होता है तथा अन्तःकरण की विषयाकाराकारित वृत्तियाँ जाग्रत्-काल में ही सर्वाधिक प्रखर होती हैं। विषयाकाराकारित वृत्तियो का स्फुरण ही जगत है। अधिष्ठानस्वरूप परमात्मा के विज्ञान में जब प्रपन्चबुद्धि बाधित हो जाती है तब उपादानता एवं निमित्तता परमात्मा में ही बाधित हो जाती है; इस स्थिति में कार्य-कारणातीत शुद्धस्वरूप की अभिव्यक्ति है। जैसे एक विष अन्य विष का प्रशमन कर स्वयं भी शान्त हो जाता है, अथवा दुग्ध दूसरे दुग्ध को शान्त करके स्वयं भी जीर्ण हो जाता है किंवा जैसे कतक-रेणु (निर्मली बूटी) जल की मलिनता को लेकर स्वयं भी नीचे बैठ जाती है ऐसे ही माहावाक्यजन्य ब्रह्माकाराकारित वृत्ति इतर सम्पूर्ण विषय-विषयिणी वृत्तियों को समाप्त कर स्वयं भी जीर्ण हो जाती है। अस्तु, जो विज्ञ भगवत-साक्षातकार से अज्ञान एवं अज्ञानजन्य विभिन्न वृत्तियों को बाधित कर स्थिर हो जाता है उसका ‘संसारे वधो न भवति’ संसार में वध नहीं होता है; विनाश्ज्ञ के हेतु अज्ञान के समाप्त हो जाने पर विनाश असम्भव हो जाता है। ‘सरसिज’ का अर्थ ‘अज्ञान’ भी है; कहीं-कहीं सरस शब्द का प्रयोग ब्रह्म में किया गया है। उदाहरणतः ‘यदालोक्याह्लादं हद इव निमज्ज्यामृतमये’[1] अर्थात् जैसे कोई प्राणी अमृत के हद में निमज्जन करके आनन्द का अनुभव करते हैं। अस्तु सरसिजं का अर्थ हुआ ‘ब्रह्मणि-जातम्।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शि. म. 25