गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 2इसी तरह, वृन्दावन-धाम, गोकुल-धाम में ब्रह्मा को विष्णु-स्वरूप परिलक्षित हुआ। आनन्दकन्द-परमानन्द श्रीकृष्णचन्द्र ही प्रत्येक गोप-बालक, धेनु, गोवत्स एवं उनके वसन-अलंकारादि सम्पूर्ण विभिन्न स्वरूपों में प्रकट हुए; उन सब विभिन्न स्वरूपों के सम्मुख चौबीसों तत्त्वों को मूर्तिमान् हो स्तुति करते हुए ब्रह्मा दे देखा। अव्यक्त, महत्, अहम्, पंचतन्मात्रा एवं षोडश विकार ही चौबीस तत्त्व हैं। शंकराचार्यजी कह रहे हैं, जिस विष्णु के चरणोदकरूप गंगा को भूत-भावन भगवान विश्वनाथ भी निरन्तर अपने मस्तक पर धारण करते हैं वही दशम-स्कन्ध का वर्णनीय दशम-तत्त्व, सच्चिन्मयी नीलिमा, श्याम-तेज, श्रीकृष्णरूप में अवतरित है। ‘भवन्तमेव मृगयन्ति सन्तः’ विज्ञ-जन असत् का परित्याग करते हुए आपका ही अनुसन्धान करते हैं। ‘न च पुनरावर्तते’[1]इस सत् को, इस दशम-तत्त्व को जान लेने पर पुनरावृत्ति, पुनर्जन्म नहीं होता। मन्त्र-ब्रह्मणात्मक वेद, श्रुतियों की अधिष्ठात्री देवियाँ ही गोप-कन्याओं के रूप में आविर्भूत हुईं; भगवत-सम्मिलन, भगवत-स्वरूप-सम्भोग-सुखहेतु-विह्वला ही श्रुतियाँ प्रार्थना कर रही हैं। ‘शरदुदाशये, स्वच्छ जलाशयसदृशे अन्तःकरणे; उदाशयो जलाशयः।’ शरत्कालीन पद-प्रयोग से स्वच्छता अभिप्रेत है। तात्पर्य कि शरत्कालीन अगाध स्वच्छ जलाशय स्वरूप साधक के निर्दोष शान्त, दान्त, उपरत, तितिक्षु, श्रद्धावान्, समाहित अन्तःकरण में ही आपका स्म्यक् दर्शन सम्भव है। कथंचित् तो सर्वत्र ही भगवत-दर्शन हो जाता है, तथापि वह दर्शन फलपर्यवसायी नहीं होता। जैसे मेघाच्छन्न सूर्य ही आच्छादक मेघ का अवभासक भी है वैसे ही अज्ञानान्छन्न-चित्त ही ज्ञान का द्योतक भी है। जैसे सम्यक् प्रकाश होते ही अन्धकार नष्ट हो जाता है वैसे ही सम्यक्-ज्ञान उत्पन्न होते ही अज्ञान नष्ट हो जाता है। ‘अविचारितरमणीयं जगत’ अर्थात् अविचार के कारण ही जगत रमणीय प्रतीत होता है। ‘अज्ञानभासकत्वेन, अहंकार भासकत्वेन अहं शान्तः अहं मूढः, अहं घोरः आदि’ विभिन्न प्रकारों से अहं का प्रकाश जिसमें होता है वह वस्तु अन्तःकरण में ही सतत प्रकाशित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ छा. 8।15।1