गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 2अद्वैतमतानुसार भी ‘रसो वै सः’[1] सम्पूर्ण रस ही सच्चिदानन्द परब्रह्म-स्वरूप ही है किन्तु लीला के क्षेत्र में आलम्बन एवं उद्दीपन ही कुछ लौकिक होते हैं। जैसे आदित्य का रूप मेघ के सम्बन्ध से आच्छादित हो जाता है परन्तु दिव्य उपनेत्र अथवा दूर-वीक्षण यन्त्र के सम्बन्ध से आवृत नहीं होता अपितु दिव्यभाव से स्पष्ट हो उठता है वैसे ही प्रपन्चोत्पादिनी मलिन शक्ति के सम्बन्ध से प्रपन्चरूप में प्रकट ब्रह्म का निजी स्वरूप तिरोहित या आच्छादित हो जाता है। परन्तु दिव्य लीला-शक्ति के योग से दिव्य-मधुर, सगुण एवं साकाररूप से प्रकट हो जाता है। सिद्धान्त है कि ‘हरिर्हि निर्गुणः साक्षात्’[2] सत्त्वादि गुणकृत प्रभाव से विनिर्मुक्त होने के कारण ही हरि निर्गुण हैं। ‘रजस्तमोऽननुविद्व सत्त्व’ रजोगुण एवं तमोगुण से अननुविद्व सत्त्व भगवत-स्वरूप का आच्छादक नहीं अपितु व्यवधायक है। श्रीधरस्वामीकृत व्याख्या अद्वैत-मत पर ही आधारित है। अद्वैत-मतानुसार ‘सत्यज्ञानानन्तानन्दमात्रैकरसमूर्तयः'[3] सत्य, ज्ञान एवं अनन्त आनन्दस्वरूप ही रस-मूर्ति है; तात्पर्य कि माया एवं गुण-रहित, सर्वअनात्मांश-विवर्जित, विशुद्ध रसमूर्ति हैं। ब्रह्मा द्वारा गोप-बालकों का उनके गोधन के साथ अपहरण किये जाने पर भगवान कृष्ण स्वयं ही गोप-बालक-समूह एवं गोवृन्द रूप में प्रकट हुए। उस समय ब्रह्मा ने प्रत्येक गोप-बालक के सम्मुख चौबीसों तत्त्वों को मूर्तिमान् हो स्तुति करते हुए देखा; अव्यक्त, महत्, अहम्, पन्चतन्मात्रा एवं षोडश विकार ही चौबीस तत्त्व हैं। ‘सच्चिन्मयो नीलिमा’ श्याम तेज, विष्णुरूप ही दशम तत्त्व हैं। जैसे शैत्य के योग से जल हिमखण्ड बन जाता है तदपि उस हिम-खण्ड का आधार एवं अस्तित्व भी जल ही है, अथवा जैसे घृत एवं वर्तिका दीपशिखाप्राकट्य के निमित्तमात्र होते हैं वैसे ही भगवान भी अपनी लीला-शक्ति, वैष्णवी माया द्वारा मंगलमय देह धारण करते हैं। |