गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 2अर्थात, भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ही व्रज-युवतियों के कानों में कुण्डल, आँखों में अन्जन, उरोजो में मृगमद एवं नीलमणि-माला आदि विभिन्न रूपों में विराजमान हैं। व्रज-युवतियों के सम्पूर्ण भूषणादि प्राकृत-प्रस्तर-खण्ड नहीं, अपितु परमानन्दकन्द भगवत-स्वरूप हैं। गोपांगनाओं का उद्गार है- ‘ईदृशा पुरुषभूषणेन या, भूषयन्ति हृदयं न सुभ्रुव:। अर्थात जिसने अपने उरस्थल को ऐसे परम पुरुष परमेश्वर पुरुषश्रेष्ठ से अलंकृत नहीं किया उसके सौन्दर्यादिक सम्पूर्ण गुण-गणों को धिक्कार है। तात्पर्य कि ऐसे व्यक्ति की गुण-गण-राशि भी निरर्थक ही है। श्रीकृष्ण-विप्रयोगजन्य तीव्र सन्ताप से सन्त्रस्त गोपांगनाओं में श्रीकृष्ण-निर्वेद का भाव उद्बबुद्ध होता है और वे परस्पर कहने लगती हैं-‘हे सखि! कालों का साथ ही बुरा है; आज से हम भी आँखों में अन्जन, उराजों में मृगमद तथा इन्द्रनीलमणिमाला, नील साड़ी, नील कंचुकी आदि भी नहीं धारण करेंगी। ‘धूलिर्धृता मस्तके’ काले बालों में भी धूलि मल लेंगी।’ परन्तु क्या करें? हे सखि! यह कृष्ण तो हमारे अन्तःकरण में व्याप्त हो गया है अतः व्यसन की तरह दुस्त्यज है। मधुसूदन सरस्वती कहते हैं, ‘स्वभावो भजनं हरेः।’ आप्तकाम, पूर्णकाम, परम निष्काम ज्ञानीजन किसी प्रयोजन-सिद्धिहेतु भजन नहीं करते अपितु भजन ही उनका स्वभाव बन जाता है। हनुमान्जी ‘ज्ञानिनामग्रगण्यम्’ हैं तत्रापि- ‘यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनम मृतत्र तत्र कृतमस्तकान्जलि। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आनन्दवृन्दावन चम्पू 8।95