गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 277

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तेरहवाँ अध्याय

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यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥32॥

जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होने से कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देह में लिप्त नहीं होता।

व्याख्या- चिन्मय सत्ता एक ही है, पर अहंता के कारण वह अलग-अलग दिखती है। अपरा प्रकृति के अंश ‘अहम्’ को पकड़ने के कारण यह जीव ‘अंश’ कहलाता है[1]। अगर यह अहम् को न पकड़े तो एक सत्ता-ही-सत्ता है। सत्ता के सिवाय सब कल्पना है। वह चिन्मय सत्ता सब कल्पनाओं का आधार, अधिष्ठान, प्रकाशक और आश्रय है। उस सत्ता में एकदेशीयपना नहीं है। वह चिन्मय सत्ता सर्वव्यापक है। सम्पूर्ण सृष्टि (क्रियाएँ और पदार्थ) उस सत्ता के अन्तर्गत है। सृष्टि तो उत्पन्न और नष्ट होती रहती है, पर सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है। तात्पर्य है कि चिन्मय सत्ता न शरीरस्थ है और न प्रकृतिस्थ है, प्रत्युत आकाश की तरह सर्वत्र स्थित (सर्वगत) है-‘नित्यः सर्वगतः’[2]। वह सम्पूर्ण शरीरों के बाहर-भीतर सर्वत्र परिपूर्ण है। वह सर्वव्यापी सत्ता ही हमारा स्वरूप है और वही परमात्मतत्त्व है।

सत्ता में एकदेशीयता अहम् के कारण दीखती है। वह अहम् सुख लोनुपता पर टिका हुआ है। साधन करते हुए भी साधक जहाँ है, वहीं सुख भोगने लग जाता है- ‘सुखसंगेन बध्नाति’[3]। यह सुखलोलुपता गुणातीत होने तक रहती है। अतः इसतें साधक को बहुत सावधान रहना चाहिये और सावधानीपूर्वक सुखलोलुपता से बचना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 15।7)
  2. (गीता 2।24)
  3. (गीता 14।6)

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