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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
तेरहवाँ अध्याय
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश: । व्याख्या- जितनी भी क्रियाएँ होती हैं, वे सब-की-सब प्रकृति-विभाग में ही होती हैं। प्रकृति के द्वारा होने वाली क्रियाओं ही गीता में कहीं गुणों से होने वाली और कहीं इन्द्रियों से होने वाली क्रियाएँ कहा गया है; जैसे-सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं-‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः’[1]; गुण ही गुणों में बरत रहे है।-‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’[2]; गुणों के सिवाय अन्य कोई कर्ता है ही नहीं-‘नान्यं गुणेभयः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्चति’[3]; इन्द्रियाँ ही इन्द्रियों के विषय में बरत रही हैं-‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते’[4] आदि। तात्पर्य है कि क्रियामात्र प्रकृतिजन्य ही है। अतः प्रकृति कभी किंचिन्मात्र भी अक्रिय नहीं होती और पुरुष में कभी किंचिन्मात्र भी क्रिया नहीं होती। इसलिये गीता में आया है कि तत्त्व को जानने वाला सांख्ययोगी ‘मैं (स्वयं) लेशमात्र भी कुछ नहीं करता हूँ’ ऐसा अनुभव करता है- ‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’[5]स्वंय न करता है, न कर वाता है-‘नैव कुर्वन्न कारयन्’[6]; यह पुरुष शरीर में रहता हुआ भी न करता है, न लिप्त होता है-‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’[7]; जो आत्मा को कर्ता मानता है, वह दुर्मति ठीक नहीं समझता; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है-‘तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं.............’[8]आदि। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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