विषय सूची
गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
तेरहवाँ अध्याय
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्मतस: परमुच्यते । व्याख्या- बारहवें से सत्रहवें श्लोक तक जिस ज्ञेयतत्त्व का वर्णन हुआ है, वह भगवान का समग्ररूप ही है। कारण कि इसमें निर्गुण-निराकार (बारहवाँ श्लोक), सगुण-निराकार (तेरहवाँ श्लोक) और सगुण-साकार (सोलहवाँ श्लोक)-तीनों ही रूपों का वर्णन हुआ है। ‘ज्योति’ नाम प्रकाश (ज्ञान)-का है। शब्द का प्रकाशक कान है। स्पर्श का प्रकाशक त्वचा है। रूप का प्रकाशक नेत्र है। रस का प्रकाशक जिह्वा है। गन्ध का प्रकाशक नासिका है। इन पाँचों इन्द्रियों का प्रकाशक मन है। मन का प्रकाशक बुद्धि है। बुद्धि का प्रकाशक स्वयं है। स्वयं का प्रकाशक परमात्मा है। स्वयं प्रकाश परमात्मा का कोई भी प्रकाशक नहीं है। जैसे सूर्य में अन्धकार कभी आता ही नहीं, ऐसे ही परम प्रकाश परमात्मा में अज्ञान कभी आता ही नहीं, आ सकता ही नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज