गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 266

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तेरहवाँ अध्याय

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ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्मतस: परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥17॥

वे परमात्मा सम्पूर्ण ज्योतियों की भी ज्योति और अज्ञान से अत्यन्त परे कहे गये हैं। वे ज्ञानस्वरूप, जानने योग्य, ज्ञान से प्राप्त करने योग्य और सबके हृदय में विराजमान हैं।

व्याख्या- बारहवें से सत्रहवें श्लोक तक जिस ज्ञेयतत्त्व का वर्णन हुआ है, वह भगवान का समग्ररूप ही है। कारण कि इसमें निर्गुण-निराकार (बारहवाँ श्लोक), सगुण-निराकार (तेरहवाँ श्लोक) और सगुण-साकार (सोलहवाँ श्लोक)-तीनों ही रूपों का वर्णन हुआ है।

‘ज्योति’ नाम प्रकाश (ज्ञान)-का है। शब्द का प्रकाशक कान है। स्पर्श का प्रकाशक त्वचा है। रूप का प्रकाशक नेत्र है। रस का प्रकाशक जिह्वा है। गन्ध का प्रकाशक नासिका है। इन पाँचों इन्द्रियों का प्रकाशक मन है। मन का प्रकाशक बुद्धि है। बुद्धि का प्रकाशक स्वयं है। स्वयं का प्रकाशक परमात्मा है। स्वयं प्रकाश परमात्मा का कोई भी प्रकाशक नहीं है। जैसे सूर्य में अन्धकार कभी आता ही नहीं, ऐसे ही परम प्रकाश परमात्मा में अज्ञान कभी आता ही नहीं, आ सकता ही नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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