गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 23

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

Prev.png

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा:।
न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम् ॥12॥

किसी काल में मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजा लोग नहीं थे, यह बात भी नहीं है; और इसके बाद (भविष्य में मैं, तू और राजालोग) हम सभी नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है।

व्याख्या- मनुष्य मात्र को ‘मैं हूँ’- इस रूप में अपनी एक सत्ता का अनुभव होता है। इस सत्ता में अहम (‘मैं’) मिला हुआ होने से ही ‘हूँ’ के रूप में अपनी अलग एकदेशीय सत्ता अनुभव में आती है। यदि अहम न रहे तो ‘है’ के रूप में एक सर्वदेशीय सत्ता ही अनुभव में आयेगी। वह सर्वदेशीय सत्ता ही प्राणि मात्र का वास्तविक स्वरूप है। उस सत्ता में जड़ता का मिश्रण नहीं है अर्थात उसमें मैं, तू, यह और वह- ये चारों ही नहीं है। सार बात यह है कि एक चिन्मय सत्तामात्र के सिवाय कुछ नहीं है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः