गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 224

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

ग्यारहवाँ अध्याय

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नभ:स्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥24॥

क्योंकि हे विष्णों! आपके देदीप्यमान अनेक वर्ण हैं, आप आकाश को स्पर्श कर रहे हैं अर्थात सब तरफ से बहुत बड़े हैं, आपका मुख फैला हुआ है, आपके नेत्र प्रदीप्त और विशाल हैं। ऐसे आप को देखकर भयभीत अन्तःकरण वाला मैं धैर्य और शान्ति को प्राप्त नहीं हो रहा हूँ।

दंष्द्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि ।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निअसवास ॥25॥

आप के प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित और दाढ़ों के कारण विकराल (भयानक) मुखों को देख कर मुझे न तो दिशाओं का ज्ञान हो रहा है और न शान्ति ही मिल रही है। इसलिये हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होइये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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