गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 100

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौथा अध्याय

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अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम: ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यासि ॥36॥

अगर तू सब पापियों से भी अधिक पापी है तो भी तू ज्ञानरूपी नौका के द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पाप- समुद्र से अच्छी तरह तर जायगा।

व्याख्या- संसारमात्र में जितने पापी हैं, उन सब पापियों में भी जो सबसे अधिक पापी है, ऐसे महापापी को भी ज्ञान प्राप्त हो सकता है! इसलिये किसी भी मनुष्य को अपने कल्याण के विषय में निराश नहीं होना चाहिये। मनुष्यमात्र ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी है। ज्ञान की प्राप्ति में पाप बाधक नहीं हैं, प्रत्युत नाशवान् की कामना बाधक है[1]

दो विभाग हैं- जड़ और चेतन। ये दोनों विभाग अन्धकार और प्रकाश की तरह परस्पर सर्वथा असम्बद्ध हैं। सम्पूर्ण क्रियाएँ जड़-विभाग में ही होती हैं। चेतन-विभाग में कभी किंचिन्मात्र भी कोई क्रिया नहीं होती। सम्पूर्ण पाप जड़-विभाग में ही हैं, चेतन-विभाग में नहीं। जड़ और चेतन के विभाग को अलग-अलग जानना ही ज्ञान है। इस ज्ञानरूपी अग्नि से सम्पूर्ण पाप सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 3।37-41)

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