श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त-हित की रस-रूपता
इस प्रकार लोक का रस संपूर्णतया व्यक्तिगत एवं लौकिक होता है और काव्यरस सार्वजनीन एवं अलौकिक होते हुए भी कृत्रिम और अनित्य होता है। अब रहा भक्तों का भक्तिरस। प्रसिद्ध तैत्तिरीय श्रुति परमतत्व को रसस्वरूप बताती है। ‘रसोवै स:’ रसस्वरूप होने के कारण ही उसमें आनन्द की स्थिति है– रस ह्येवायं लब्धवानंदी भवति। भगतद्भक्त अपने भगवान को ‘निखिल रसमृतमूर्ति’ मानते हैं और प्रेमोपासकों की दृष्टि में उनका नित्य-क्रीड़ा-परायण प्रेम रस-स्वरूप है। यह रस भगवत स्वरूप होने के कारण नित्य होता है और भगवदंशजीव के लिये सहज भी। श्रुति ने परतत्व का रसरूप होना घोषित किया है किन्तु संपूर्ण श्रुति-साहित्य में यह कहीं नहीं बताया गया है कि यह रस रूपता किस प्रकार सिद्ध होती है। श्री कृष्णलीला का गान करने वाले श्रीमद्भागवतादि पुराणों में कहीं इस रस की परिपाटी का वर्णन नहीं मिलता केवल अग्नि पुराण में इस विषय की चर्चा मिलती है किन्तु वह भरत की रसप्रणाली पर ही आधारित है। सोलहवीं शताब्दी में कृष्णभक्ति-सम्प्रदायों के उदय के साथ रससम्बन्धी विशद ऊहापोह का प्रारम्भ होता है। भक्ति-रस का विवेचन करने वाला सर्वप्रथम गन्थ श्री रूप गोस्वामी कृत ‘हरिभक्ति रसामृतसिंधु’ है जिसकी रचना शकाब्द 1463[1] में गोकुल में हुई थी। इस ग्रंथ में भरत की रसविवेचन की प्रणाली को आधार बनाकर भक्ति रस का विशद विवेचन किया गया है एवं भक्ति रस को व्यक्त करने के योग्य बनाने के लिये उस प्रणाली में अनेक मौलिक परिवर्तन किये गए हैं। इन परिवर्तनों का विस्तृत वर्णन श्री जीव गोस्वामी ने अपने विद्वत्तापूर्ण ‘प्रीतिसंदर्भ’ में किया है। भक्तिरस के साधारणीकरण के लिये कवि-प्रतिभा-जनित विभावन-व्यापार को उक्त ग्रंथ में स्वीकार नहीं किया गया है। भक्तिरस के विभावादिक का स्वरूप ही ऐसा बताया गया है कि समान वासना वाले भक्त के हृदय में वे स्वयं विभावित हो जाते हैं। काव्य-रस प्रणाली की जो दो कृत्रिमताएं ऊपर दिखाई गई हैं उनमें से प्रथम का परिहार यहाँ हो जाता है। दूसरी कृत्रिमता जो लोक में अनुभूत रति के कारण, कार्य आदि सबको काव्यरस का हेतु बनाने के कारण उत्पन्न होती है, उसका परिहार भरत की प्रणाली को स्वीकार करने के बाद असंभव प्रतीत होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं. 1568
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