श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
नागरीदास जी
उन्होंने रसिक अनन्यता को अत्यन्त दुर्लभ और त्रिगुण के क्षेत्र से परे की वस्तु बतलाया है।’ वानी श्री हरिवंश की धर्मी-धर्म प्रतीति। नागरीदास जी राधावल्लभीय संप्रदाय के उन प्रारंभिक रसिक महानुभावों में से हैं जिन्होंने अपने चरित्र और वाणी द्वारा संप्रदाय की नींव को सुदृढ़ बनाया है। ध्रुवदास जी को जिस प्रकार नागरीदास जी को उसके उपासना-मार्ग को सुव्यवस्थित बनाने का गौरव प्राप्त है। सेवक वाणी में रास-रीति और उपासना-पद्धति दोनों का ही निर्धारण सेवक जी ने किया है। उपर्युक्त दोनों महात्माओं ने अपनी वाणियों में उनको पल्लवित किया है। नागरीदास नाम के तीन वाणीकार महात्मा हुए है। काल-क्रम में प्रस्तुत नागरीदास जी सबसे प्रथम हैं। इनके बाद में स्वामी हरिदास जी की शिष्य-परंपरा में एक नागरीदास जी हुए हैं। तीसरे नागरीदास पुष्टि मार्ग में हुए हैं। यह कृष्ण-गढ़ के राजा थे और नागरीदास जी के नाम से प्रसिद्ध हैं। लेखक ने नागरीदास जी के 937 दोहे और 331 पद देखे हैं। इनके अनेक पद प्रवाहशील व्रज-भाषा में हैं। कुछ पदों में बुंदेलखंडी शब्दों का पुट अधिक है और शब्दों की तोड़-मरोड़ भी काफी हैं किन्तु प्रत्यक्ष अनुभव की मोहर हर शब्द पर लगी हुई है। इनका वाणी-रचना-काल सं. 1620 से सं. 1660 तक माना जा सकता है। इन्होंने विहार-वर्णन के साथ प्रेम-भजन का बड़ा सूक्ष्म और भाव-पूर्ण वर्णन किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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