श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
श्रीहरिराम व्यास (सं. 1549-1655)
कह्मो भागवत शुक अनुराग-कैसे समुझे बिनु बड़ भाग। सं. 1791 की प्रति में 'श्रीगुरू सुकुल कृपा करी' के स्थान में 'श्री हरिवंश कृपा बिना' पाठ है। इसी प्रकार प्रका-शित व्यास वाणी में एक 'श्रीगुरू-मंगल मिलता है जिसका आरंभ 'जय जय श्रीगुरू सुकुल वंश उदिृत किये भये, से होता है। इस पहिली पंक्ति से ही मालुम हो जाता है कि यह व्यासजी के किसी शिष्य की रचना है। व्यासजी अपने ही जन्म का 'मंगल' कैसे गा सकते थे? किन्तु भक्त कवि व्याजी' में इसको व्यासवाणी के अन्तर्गत ग्रहण कर लिया गया है! यह 'मंगल सं. 1791 और सं. 1876 वाली प्रतियों में नहीं मिलता। व्यास वाणी की प्रचलित प्रतियों में सिद्धान्त के पदों के मंगलाचरण का पद 'वंदे श्री सुकुल पद पंकजनि' से प्रारंभ होता है। सं. 1876 की प्रति में यह पद 'वंदे श्री शुक पद पंकजनि' से शुरू होता है। इसी प्रकार श्रंगार रस के पदों के मंगलाचरण में 'वंदे राधा मरण मुदारं' से आरंभ होने वाला 1 पद मिलता है। प्रकाशित पुस्तकों में इस पद का दूसरा चरण 'श्रीगुरू सुकुल सहचरी ध्याऊं दपति सुख रस सारं दिया आुआ है। सं. 1876 की प्रति में इस पद में यह चरण नहीं मिलता। अत: व्यासवाणी के अंत: साक्ष्य से ही यह सिद्ध हो जाता है कि व्यासजी के दीक्षागुरू श्रीहित हरि-वंश थे। 'भक्त कवि व्यासजी' में दिये हुए एक उद्धरण से मालुम होता है कि सुकुल सुमोखन के इष्ट नृसिंह जी थे।[1] उनसे व्यासजी को नृसिंह-मंत्र की ही दीक्षा मिली होगी। विक्रम की उन्नीसवीं शती में सुकुल सुमोखन जी को व्याजी की रसोपासना का भी गुरू प्रमाणित करने की प्रृति आरंभ हुई और उसके फल स्वरूप 'रास-पंचा-ध्यायी' और उस के पदों में यत्र-तत्र रसिक भक्त के रूप में उनका ख्यापन करने वाली पंक्तियां जोड़ दी गई। व्याजी को राधिका जी से प्राप्त मंत्र[2] की दीक्षा श्रीहित जी से मिली थी और इसी मंत्र के अनुकूल उपासना और रस-रीति का गान उन्होंने अपनी सम्पूर्ण वाणी में किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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