श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
श्रीहरिराम व्यास (सं. 1549-1655)
चरित्र:- 'सब सुखों की राशि श्री चैतन्य के चरणों में प्रणाम करके मैं उल्लास पूर्वक व्यास-चरित्र गाना चाहता हूं। मैं श्रीहित हरिवंश के चरणों में शिर नवाता हूं और इसी बल से व्यास की कथा का गान करता हूं। व्यासजी के पिता सुकल सुमोखन राजा और प्रजा द्वारा सम्मानित थे। व्यास जी पंडित और गुणवान थे। उनका मन गुरू करने को उत्सुक रहता था किन्तु वे गुरू ऐसा चाहते थे जो उनको भव-सागर से पार उतार दे। उनका मन कभी रैदास की ओर, कभी कबीर की ओर और कभी पीपा की ओर खिचता था, कभी वे जय-देव का गान करते थे। इसी प्रकार, कभी उनको नामदेव का स्मरण आता था, कभी रंक-बंका का और कभी रामानंद गुसाई का। कभी उनका मन वृन्दावन के रसिक भक्तों की ओर खिचता था। इस झमेले में कोई बात स्थिर न हो सकी और उनकी बयालीस वर्ष आयु व्यतीत हो गई। एक दिन नवलदास वैरागी उनके घर आये और उनसे मिलकर व्यासजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। व्यासजी ने उनको अपने पास रख लिया। नवलदास ने एक दिन सहज रूप से हित जी का एक पद गाया जो 'आज अति राजत दंपति भोर' से आरंभ होता है और जिसका अंतिम चरण इस प्रकार है,[1] हित हरिवंश लाल ललना मिलि हियो सिरावत मोर'। व्यासजी का रोम-रोम तन्मय हो गया। नवलदास जी ने पद-कर्त्ता का परिचय देते हुए बताया 'जिनके हृदय को 'जोरी'[2] शीतल करते हैं, उन श्रीहित हरिवंश ने विधि-निेषेध की सुदृढ़ श्रृखंला को तोड़ दिया है। वे शुद्ध-भक्ति के बल से योग, यज्ञ, जप, तप, व्रतादिक को तुच्छ मानते है'। इस अदभुत रीति को सुनकर व्यासजी के हृदय में हित-गुरू के प्रति प्रीति उत्पन्न हो गई। ऐसी सुनी नवल मुखरीति-व्यास करी हितगुरू सों प्रीति। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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