श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
हित वृन्दावन
प्यारे वृन्दावन के रूख। रसलीला का आधार होने के कारण वृन्दावन को रसोपासना का भी स्वाभाविक आधार माना गया है। उपासना की दृष्टि से वह रस का सहज धर्म है। आधार का काम धारण करना है और जो धारण करता है। वह धर्म कहलाता है, ‘धारणात् धर्ममित्याहु:।’ हितप्रभु के निज-धर्म का वर्णन करते हुए सेवक जी कहते हैं-‘वहाँ वृन्दावन की स्थिति है, जहाँ प्रेम का सागर बहता है' अब निजु धर्म आपुनौं कहत, तहाँ नित्य वृंदावन रहत । वृन्दावन की स्थिति के आधार पर ही प्रेम-सागर बहता है। वृन्दावन ने ही प्रेम के सागर को धारण कर रखा है और धारण करने के कारण ही वह धर्म है। श्री वृन्दावन किंवा प्रेम-धर्म का साधन नवधा-भक्ति है। ‘साधन सकल भक्ति जा तनौ।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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