हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 92

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
हित वृन्‍दावन

प्‍यारे वृन्‍दावन के रूख।
जिनितर राधा-मोहन विहरत देखत भाजत भूख।।
माया काल न व्‍यापै जिनितर सींचे प्रेम-पियूख।
कोटि गाय बाँझन हत शाखा तोरत हरिहिं विदूख।।
रसिकनि पारिजात सूझत हैं विमुखनि ढ़ाक-पिलूख।
जो भजिये तौ तजिये पान मिठाई मेवा ऊख।।
जिनि के रस-बस गोपिनु छाँड़े सुख-संपति गृहतूख।
मणि कंचन मय कुंज विराजत रंध्रनि चन्‍द्र मयूख।।
जिहिं रस भोजन तज्‍यौ परीक्षित उपज्‍यौ शुकहिं अतूख।
व्‍यास पपीहा बन-घन सेयौ दुख-सलिता-सर सूख।।[1]

रसलीला का आधार होने के कारण वृन्‍दावन को रसोपासना का भी स्‍वाभाविक आधार माना गया है। उपासना की दृष्टि से वह रस का सहज धर्म है। आधार का काम धारण करना है और जो धारण करता है। वह धर्म कहलाता है, ‘धारणात् धर्ममित्‍याहु:।’ हितप्रभु के निज-धर्म का वर्णन करते हुए सेवक जी कहते हैं-‘वहाँ वृन्‍दावन की स्थिति है, जहाँ प्रेम का सागर बहता है'

अब निजु धर्म आपुनौं कहत, तहाँ नित्‍य वृंदावन रहत ।
बहत प्रेम सागर जहाँ ।।[2]

वृन्‍दावन की स्थिति के आधार पर ही प्रेम-सागर बहता है। वृन्‍दावन ने ही प्रेम के सागर को धारण कर रखा है और धारण करने के कारण ही वह धर्म है। श्री वृन्‍दावन किंवा प्रेम-धर्म का साधन नवधा-भक्ति है। ‘साधन सकल भक्ति जा तनौ।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. व्‍यासवाणी -20
  2. से. वा.

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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