हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 1

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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भूमिका -डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी


सन ईसवी की पन्द्रहवी-सोलहवीं शताब्दी भारतीय इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस काल में यद्यपि विजातीय संस्कृति के संघर्ष से भारतीय संस्कृति के विकास की स्वाभाविक गति कुंठित हो गई थी, तथापि उसमें प्राणशक्ति बची हुई थीं। अवसर पाते ही उसने अत्यन्त शक्तिशाली मनीषियों को जन्म दिया। प्रधान रूप से भक्ति और धर्म के क्षेत्र में ही यह नव जागरण दिखाई दिया। इस काल में स्वामी रामानंद, महाप्रभु बल्लभाचार्य, महाप्रभु चैतन्यदेव, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, गोस्वामी हितहरिवंश, सूरदास, कबीरदास, नामदेव, नानक आदि एक से एक शक्तिशाली महापुरुष पैदा हुए और उन्होंने मूर्च्छित भारतीय संस्कृति को नया जीवन प्रदान किया। यह सब कैसे हुआ, यह कहना बड़ा कठिन है। इतिहास बताता है कि जब-जब भारतीय संस्कृति संकटापन्न हुई, तब-तब कोई अज्ञात शक्ति उसे एक दम मृत हो जाने से बचा लेती है। सन् ईसवी की 19 वीं शताब्दी में फिर एक बार यह प्रक्रिया देखी गई। इस काल में उसे केवल धर्ममूलक संस्कृति से ही नहीं निबटना पड़ा, परन्तु नवीन विज्ञान से उत्पन्न अज्ञात पूर्व परिस्थितयों से टकराना पड़ा। इस समय इसके पुरातन प्राणबल ने साथ दिया। एक से एक बढ़कर महात्मा, समाज-सुधारक, कवि नेता और राजपुरुष पैदा होते गये और उसे कालकवलित होने से बचा लिया। निस्सन्देह भारतीय संस्कृति के भीतर कोई अदम्य प्राण-शक्ति है, जो विषम परिस्थितियों में पूरी शक्ति से जाग उठती है और उसे नया जीवन और नई ताकत देती रहती है।

पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में मनुष्य जीवन को चालित और प्रेरित करने वाली मुख्य शक्ति धर्म-साधना थी। समूचे संसार में यह काल कुंठित और उबटी हुई मनोवृत्ति का काल माना जाता है। सारे संसार के मनुष्य उन दिनों यह विश्वास करने लगे थे कि संसार अब क्रमशः ह्रास की ओर जा रहा है। जो कुछ भी उत्तम था वह पूर्ववर्ती काल में समाप्त हो चुका है। अब कुछ नया करने को रह नहीं गया है, इसीलिए सर्वत्र प्राचीन ऋषियों, पैगम्बरों और देवदूतों की वाणियों पर श्रद्धा और आस्था पाई जाती है। जो कुछ नया कहा जाता था, उसके लिये पुराने शास्त्रों से प्रमाण ढूँढा जाता था। भारतवर्ष में उन दिनों शास्त्रों की टीकाओं का युग चल रहा था। किसी को कुछ कहना होता था तो एक बार पीछे मुड़ कर प्राचीन शास्त्र-वाक्यों को अवश्य देख लेता था। भारतवर्ष में इस काल में ज्ञान के क्षेत्र में नई उद्भावनाएँ हुई ही नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता; परन्तु नवीन उद्भावनाओं के लिये प्राचीन ग्रन्थों का सहारा अवश्य लिया जाता था। थोड़े से मनीषी अवश्य थे, जो ‘अनभै साँचपन्थ’ या अनुभवगम्य सत्य मार्ग पर चलने का प्रयास करते थे; परन्तु वे लोग साधारणतः विद्रोही माने जाते थे और विद्वानों की दृष्टि में अक्षर-ज्ञान से वचित होने के कारण भ्रान्त मार्ग पर चलने वाले थे। ‘स्वसंवेद्य ज्ञान’ की महिमा अस्वीकृत नहीं हुई थी। सभी मानते थे कि एक ऐसी अवस्था आती है जब मनुष्य के लिए विधि-निषेध-परक शास्त्र-ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती, वह निस्त्रैगुण्य मार्ग में विचरण करने लगता है, उसकी अन्तरसत्ता इतनी शुद्ध और निर्मल हो जाती है कि सामाजिक विधि-निषेध की मर्यादा उसके लिये बहुत महत्त्व की नहीं रह जाती, परन्तु ऐसे बड़भागी जीव कम ही होते हैं और सर्वसम्मति से स्वीकृत तो कदाचित कभी नहीं होते। इसीलिये व्यवहार में निरन्तर शास्त्र-निर्दिष्ट मर्यादा पर जोर दिया जाता था।

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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