श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
भूमिका -डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी
पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में मनुष्य जीवन को चालित और प्रेरित करने वाली मुख्य शक्ति धर्म-साधना थी। समूचे संसार में यह काल कुंठित और उबटी हुई मनोवृत्ति का काल माना जाता है। सारे संसार के मनुष्य उन दिनों यह विश्वास करने लगे थे कि संसार अब क्रमशः ह्रास की ओर जा रहा है। जो कुछ भी उत्तम था वह पूर्ववर्ती काल में समाप्त हो चुका है। अब कुछ नया करने को रह नहीं गया है, इसीलिए सर्वत्र प्राचीन ऋषियों, पैगम्बरों और देवदूतों की वाणियों पर श्रद्धा और आस्था पाई जाती है। जो कुछ नया कहा जाता था, उसके लिये पुराने शास्त्रों से प्रमाण ढूँढा जाता था। भारतवर्ष में उन दिनों शास्त्रों की टीकाओं का युग चल रहा था। किसी को कुछ कहना होता था तो एक बार पीछे मुड़ कर प्राचीन शास्त्र-वाक्यों को अवश्य देख लेता था। भारतवर्ष में इस काल में ज्ञान के क्षेत्र में नई उद्भावनाएँ हुई ही नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता; परन्तु नवीन उद्भावनाओं के लिये प्राचीन ग्रन्थों का सहारा अवश्य लिया जाता था। थोड़े से मनीषी अवश्य थे, जो ‘अनभै साँचपन्थ’ या अनुभवगम्य सत्य मार्ग पर चलने का प्रयास करते थे; परन्तु वे लोग साधारणतः विद्रोही माने जाते थे और विद्वानों की दृष्टि में अक्षर-ज्ञान से वचित होने के कारण भ्रान्त मार्ग पर चलने वाले थे। ‘स्वसंवेद्य ज्ञान’ की महिमा अस्वीकृत नहीं हुई थी। सभी मानते थे कि एक ऐसी अवस्था आती है जब मनुष्य के लिए विधि-निषेध-परक शास्त्र-ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती, वह निस्त्रैगुण्य मार्ग में विचरण करने लगता है, उसकी अन्तरसत्ता इतनी शुद्ध और निर्मल हो जाती है कि सामाजिक विधि-निषेध की मर्यादा उसके लिये बहुत महत्त्व की नहीं रह जाती, परन्तु ऐसे बड़भागी जीव कम ही होते हैं और सर्वसम्मति से स्वीकृत तो कदाचित कभी नहीं होते। इसीलिये व्यवहार में निरन्तर शास्त्र-निर्दिष्ट मर्यादा पर जोर दिया जाता था। |
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