हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 162

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
उपासना-मार्ग


सोलहवीं शती के भक्ति-आन्दोलन के बिविध अंगों के बीज तो प्राचीन वैष्णव परंपराओं में मिल जाते हैं किन्तु उन में से अनेक का विकास नवीन रूपों में हुआ है। संपूर्ण भारतीय संस्कृति के, तब तक के, बहुविध विकास ने इन नवीन रूपों के निर्माण में योगदान दिया है। इष्ट-उपासना इस आन्दोलन का ऐसा ही एक अंग है जो प्राचीन होते हुए भी नवीन रूप में सामने आया है।

सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक इष्ट उपासना का यह नवीन रूप काफी पल्लवित हो चुका था। ध्रुवदास जी ने अपने ‘सिद्धान्त-विचार’ में भगवत-उपासकों के दो भेद बतलाये हैं। एक तो वे हैं जो रख अवतारों की लीलाओं का गान अभेद बुद्धि रख कर करते हैं। इन भक्तों के लिये राम, कृष्ण, नृसिंह, वामन आदि भगवत अवतारों के चरित्र समान रूप से प्रिय होते हैं और वे इन सब में भगवान के अचिंन्त्य ऐश्वर्य का दर्शन श्रद्धावनत चित्त से करते हैं। दूसरे वे हैं जो एक मात्र अपने इष्ट की, उपासना करते हैं। यह लोग भगवान के किसी एक रूप को अपना इष्ट मानकर अपने हृदय का संपूर्ण प्रीति-संभार उसके चरणों में अर्पित कर देते हैं। ध्रुवदास जी ने द्वितीय प्रकार के उपासकों को प्रथम प्रकार के भक्तों की अपेक्षा अधिक सरस बतलाया है। उन्होंने इष्ट का अर्थ स्नेही किंवा प्रेमी किया है और इष्ट-उपासना का अर्थ बतलाया हैं, ‘अपने स्नेही को छोड़कर मन अन्यत्र कहीं न जाय और यदि जाय तो वह स्नेही नहीं, व्यभिचारी है।

इष्ट उपासकों में सर्वोपरि प्रेम व्रज-देवियों का माना जाता है। चैतन्य संप्रदाय में व्रज-वधू-वर्ग के द्वारा कल्पित परम रमणीय उपासना का ही अनुगमन किया जाता है- ‘रम्याकाचिदुपासना ब्रजवधु वर्गेण या कल्पिता’। इन ब्रज-देवियों से भी अधिक सरस एवं संपूर्णतया तत्सुखमयी इष्ट-उपासना ललिता, विशाखा आदि सखियों की है। ध्रुवदास जी ने भक्ति के पांचों रसों की उपासना का तारतम्य दिखलाकर ललितादिक सखीगण द्वारा आस्वादित युगल-किशोर के विलास-रस को छठा और सर्वश्रेष्ठ रस बतलाया है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह बतलाई है कि इसमें प्रेमील्लास कभी घटता नहीं है। इससे परे न तो कोई भजन है और न कोई सुख है।

ज्ञान शांत रस तैं अधिक अद्भुत पदवी दास।
सखाभाव तिनतैं अधिक जिनकै प्रीति प्रकास।।
अद्भुत बाल चरित्र कौ जो जसुदा सुख लेत।
तातैं अधिक किसोर-रस ब्रज बनितनि के हेत।।
सर्वोपरि है मधुर रस जुगल किसोर विलास।
ललितादिक सेवत तिनहिं मिटत न कबहुँ हुलास।।
या पर नाहिन भजन कछु नाहिन है सुख-और।
प्रेम मगन विलसत दोऊ परम रसिक सिरमौर।।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भजनाष्टक

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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