श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
उपासना-मार्ग
सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक इष्ट उपासना का यह नवीन रूप काफी पल्लवित हो चुका था। ध्रुवदास जी ने अपने ‘सिद्धान्त-विचार’ में भगवत-उपासकों के दो भेद बतलाये हैं। एक तो वे हैं जो रख अवतारों की लीलाओं का गान अभेद बुद्धि रख कर करते हैं। इन भक्तों के लिये राम, कृष्ण, नृसिंह, वामन आदि भगवत अवतारों के चरित्र समान रूप से प्रिय होते हैं और वे इन सब में भगवान के अचिंन्त्य ऐश्वर्य का दर्शन श्रद्धावनत चित्त से करते हैं। दूसरे वे हैं जो एक मात्र अपने इष्ट की, उपासना करते हैं। यह लोग भगवान के किसी एक रूप को अपना इष्ट मानकर अपने हृदय का संपूर्ण प्रीति-संभार उसके चरणों में अर्पित कर देते हैं। ध्रुवदास जी ने द्वितीय प्रकार के उपासकों को प्रथम प्रकार के भक्तों की अपेक्षा अधिक सरस बतलाया है। उन्होंने इष्ट का अर्थ स्नेही किंवा प्रेमी किया है और इष्ट-उपासना का अर्थ बतलाया हैं, ‘अपने स्नेही को छोड़कर मन अन्यत्र कहीं न जाय और यदि जाय तो वह स्नेही नहीं, व्यभिचारी है। इष्ट उपासकों में सर्वोपरि प्रेम व्रज-देवियों का माना जाता है। चैतन्य संप्रदाय में व्रज-वधू-वर्ग के द्वारा कल्पित परम रमणीय उपासना का ही अनुगमन किया जाता है- ‘रम्याकाचिदुपासना ब्रजवधु वर्गेण या कल्पिता’। इन ब्रज-देवियों से भी अधिक सरस एवं संपूर्णतया तत्सुखमयी इष्ट-उपासना ललिता, विशाखा आदि सखियों की है। ध्रुवदास जी ने भक्ति के पांचों रसों की उपासना का तारतम्य दिखलाकर ललितादिक सखीगण द्वारा आस्वादित युगल-किशोर के विलास-रस को छठा और सर्वश्रेष्ठ रस बतलाया है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह बतलाई है कि इसमें प्रेमील्लास कभी घटता नहीं है। इससे परे न तो कोई भजन है और न कोई सुख है। ज्ञान शांत रस तैं अधिक अद्भुत पदवी दास। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भजनाष्टक
संबंधित लेख
विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज