श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
हित वृन्दावन
नवधा-भक्ति भी धर्म है, क्योंकि उसको धारण करने से प्रेम-धर्म-स्वरूप वृन्दावन की प्राप्ति होती है। धर्म के दो रूप होते हैं। एक रूप में वह धारण करता है और दूसरे में वह धारण किया जाता है। धर्म का 'धारण करने वाला’ रूप उसका सहज मौलिक रूप है, अतएव वह साध्य है। धर्म का ‘धारण किये जाने वाला' रूप उसका साधन है। धर्म की पूर्ण अभिव्यक्ति के लिये उसके दोनों रूप आवश्यक हैं और सेवकजी ने दोनों का वर्णन अपनी वाणी में किया है। वृन्दावन हित का सहज-धर्म है, अत: इसके रूप में हित का अपना सहज एवं अनिर्वचनीय प्रीति-वैभव प्रकट होता है- ‘निजु वैभव प्रगटत आपुनौं’। इस धर्म का निवास श्री राधा के युगल चरणों में है-‘श्री राधा जुग चरन निवास’। श्री राधा के युगल चरणों के आश्रित होते हुए भी यह धर्म उन चरणों का आधार बना हुआ है। सेवक जी ने, इसीलिये, अन्यत्र कहा है - ‘धर्मी के बिना धर्म की और धर्म के बिना धर्मी की स्थिति नहीं है। श्री हरिवंश के प्रताप के मर्मज्ञ लोग ही इस मर्म को जानते हैं’- धर्मी बिनु नहिं धर्म, नाहिं बिनु धर्म जु धर्मी। साधारणतया रस को समस्त धर्मो से परे माना जाता है और वह है भी। किन्तु रस का भी कोई अपना ‘धर्म है जो उसके समस्त विलासों को धारण करता है। रस की उपासना का पूर्ण रूप रस के धर्म और धर्मी को लेकर बनता है। रस की शुद्धतम स्थिति उसके सहज धर्म के द्वारा और उसका निष्कपट आचरण उसके धर्मी के द्वारा प्रकट होता है। अपने कण-कण में रस का शुद्धतम प्रकाश धारण करने वाला श्री वृन्दावन यदि प्रेम का सहज धर्म है, तो एक-मात्र प्रेम को अपने सम्पूर्ण आचरणों का नियामक मानने वाले प्रेम-स्वरूप-श्रीराधा श्यामसुन्दर उसके सहज धर्मी है। प्रेम के इन सहज धर्म एवं धर्मी के योग से श्री हित प्रभु की शुद्ध रस-उपासना का निर्माण हुआ है। सहचरि सुखजी ने श्री हित प्रभु की एक जन्म-बधाई में गाया है कि उन्होंने ‘नव कुंज, नित्य निकुंज एवं निभृत -निकुंज के आश्रित रस का दर्शन कराकर रस के क्षेत्र में भी धर्म और धर्मी को स्पष्ट दिखला दिया है'- नव कुंज, नित्य निकुंज, निभृत-निकुंज-रस दरसाइकै। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ से. वा. 13-11
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