श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
प्रेम और रूप
इन दोनों उक्तियों में सौन्दर्य के केवल एक-एक अंग का ही परिचय मिलता है, अत: संपूर्ण सौन्दर्य-तत्व को समझने में यह अधिक सहायक नहीं होती है। पाश्चात्य मनीषियों ने सौन्दर्य पर विस्तृत विचार किया है, किन्तु वे भी सौन्दर्य की पूरी परिभाषा देने में असमर्थ रहे हैं। वहाँ जिन विद्वानों ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सौन्दर्य पर विचार किया है, उनमे से कुछ उसको वस्तुगत मानते हैं और कुछ ने सौन्दर्य-बोध को अंत:करण का एक धर्म माना है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाले विद्वानों ने सौन्दर्य को न तो द्दश्य-गत माना है और न द्रष्टा के अन्त:करण-गत। वे सौन्दर्य को कोई अतीन्द्रिय वस्तु मानते हैं जो सुन्दर कहे जाने वाले पदार्थो में प्रतिभासित होती है। इस वस्तु के कारण ही भौतिक द्दश्य सुन्दर दिखाई देते हैं। यह अतीन्द्रिय वस्तु क्या है ? इसका उत्तर हर विचारक भिन्न देता है। आध्यात्मिक विचारकों में से अनेक भगवान् और सौन्दर्य को अभिन्न मानते हैं और सुन्दर वस्तु-समूह में भगवान के सौन्दर्य को ही प्रतिभासित बतलाते हैं। किन्तु सौन्दर्य और भगवान को एक बतला देने से सौन्दर्य-संबंधी जिस जिज्ञासा पूर्णतया शांत नहीं होती। प्रश्न यह उठता है कि यदि भगवान ही संपूर्ण सौन्दर्य के अधिष्ठान हैं और सुन्दर दिखलाई देने वाली वस्तुएँ उन ही की सौन्दर्य-रश्मि से आलोकित हैं, तो फिर सौन्दर्य की प्रतीति सब लोगों को समान क्यों नहीं होती ? सौन्दर्य के दर्शन से जहाँ एक व्यक्ति आनंद-विभोर बन जाता है, वहाँ दूसरे के चित्त में मामूली-सी विक्रिया होती है। इससे सिद्ध होता है कि सौन्दर्य की प्रतीति बहुत अंशो में द्रष्टा के अंत:करण पर आधारित है। वैज्ञानिकों की भाँति सौन्दर्य द्रष्टा के अंतकरण का धर्म-विशेष तो नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह अनेक अंशों में द्दश्य के गठन-प्रकार पर अबलंवित रहता है। सुन्दर वस्तु का गठन विशेष प्रकार से होता है। जिन वस्तुओं को हम सुन्दर कहते हैं उनमें एकत्व, सामंजस्य, अनुपात, शुद्धता, आरोह-अवरोह ( रिथ्म ) सुचारु-विन्यास आदि कुछ बाह्य गुण दिखाई पड़ते हैं। अत: सौन्दर्य की परिभाषा ऐसी होनी चाहिये जिसमें द्रष्टा, द्दश्य और ‘अतीन्द्रिय-वस्तु‘ तीनों को उचित स्थान मिल सके। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दक्षिण विभाग प्रथम लहरी
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