हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 153

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
श्री हित हरिवंश


हित और प्रेम समानार्थक हैं और राधावल्लभीय साहित्य में इनका प्रयोग भी एक ही अर्थ में होता है। किन्तु इस संप्रदाय में ‘हित’ शब्द एक विशिष्ट भाव-समूह का व्यंजक बन गया है और यह व्यंजना प्रेम शब्द से नहीं होती। संप्रदाय का प्रेम-संबंधी दृष्टिकोण और उसके आधार पर खड़ा हुआ उसका संपूर्ण प्रेम-दर्शन और उसासना-मार्ग, हित शब्द से द्योतित हो जाता है। इसीलिये राधावल्लभीय गण हित को प्रेम से भिन्न बतलाया करते हैं।

हित का मूर्त रूप श्रीहित हरिवंश हैं और हित का समस्त वैभव श्रीहित हरिवंश का ‘यश-विलास’ है। भगवद्गीता में श्रद्धा का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है, ‘यह पुरुष श्रद्धामय है, जिसकी जैसी श्रद्धा होती हैं, वह वैसा ही होता है’ - श्रद्धा-मयोऽयं पुरुषो यों यच्छूद्धः स एव सः। निष्कपट हित में एकान्त एवं निरतिशय श्रद्धा रखने वाले श्री हित हरिवंश की हितरूपता इस दृष्टि से भी सिद्ध है।

हिताचार्य को जन्म-बधाइयों और ‘मंगलों’ का राधवल्लभीय साहित्य में, विशिष्ट स्थान हैं। संप्रदाय के प्रायः सभी बड़े-छोटे वाणीकारों ने इन बधाइयों और मंगलों की रचना की है। साहित्यिक दृष्टि से भी इनका स्थान महत्त्वपूर्ण है। इनमें भाव-प्रकाशन की सूक्ष्मता और सरसता दर्शनीय है। बधाइयों और मंगलों में हितप्रभु का गान चार रूपों में किया गया है। हित-रूप में, जिसको निजरूप भी कहा गया है, सखीरूप में, वंशीरूप में और आचार्य रूप में।

हितरूप किंवा निज-रूप में संपूर्ण नित्य विहार श्री हित हरिवंश का ही वैभव है। वे अंगी हैं और नित्य-विहार उनका अंग है। इस रूप का पर्याप्त विवेचन पीछे हो चुका है, यहाँ उदाहरण के लिये केवल एक ‘मंगल’ का कुछ अंश दिया जा रहा है।

श्री कल्याण पुजारी कहते हैं, ‘श्रीहरिवंश के हृदय में जब प्रीति का प्रबल लालच बढ़ता है और वह लालच ही ‘लाल’[1] का स्वरूप है, तब अद्भुत रमणीय रूप वाली ‘बाल’[2] का प्रागट्य उनके हृदय से हो जाता है। प्रिया के प्रगट होते ही श्रृंगार चेष्टाओं का प्रादुर्भाव होता है और प्रियतम उनकी छवि का पान इस प्रकार मुदित होकर करते हैं मानो रंक को निधि मिल गई हो ! छविपान से मत्त बनकर वे अनेक छल-बल से प्रिया को अपने अंक में समेटने की चेष्टा करते हैं और अत्यंत उत्साह पूर्वक प्रेमरस का पान करते हुए परस्पर अंशो पर भुजा रखते हैं। गाढ़ प्रेमालिंगन में आवद्ध यह दोनों रस का वितरण करते हैं और श्रीहरिवंश श्यामसुन्दर के मुख से प्रिया के यश का गान करते हैं।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रियतम
  2. प्रिया

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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