हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 29

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-प्रमाण-ग्रन्थ


श्री राधा बल्‍लभीय सम्प्रदाय विशाल वैष्‍णव-धर्म का एक सम्‍प्रदाय-विशेष है। वैष्‍णव-धर्म के उपलब्‍ध इति-वृत्त से मालुम होता है कि यह हमारे देश का एक अत्‍यन्‍त प्राचीन धर्म है और वेदों से लेकर अब तक अनेक रूपान्‍तर ग्रहण करता चला आ रहा है। इस धर्म में विष्‍णु परम दैवत हैं और इस धर्म के अनेक रूपान्‍तरों में वे अनेक नाम रूपों में प्रगट होते रहे हैं। ऋग्‍वेद[1] में सम्‍पूर्ण ब्रह्मांडों को तीन पदों में नापने वाले गोप विष्‍णु[2] के दर्शन होते रहते और शतपथ ब्रह्मण के चौदहवें कांड में एक कथा मिलती है जिसमें सब देवों ने विष्‍णु को नारायण कहा गया है , किन्‍तु प्राचीन वैदिक साहित्‍य में विष्‍णु किंवा नारायण की उपसना-पद्धति का कहीं उल्‍लेख नहीं मिलता।

इस अंग की पूर्ति वैष्‍णव आगम ने की है जो अपने को वेदों का ही एक अंग मानता है और अपना सम्‍बन्‍ध वेद को ‘एकायन’ शाखा से बतलाता है। छान्‍दोग्‍य उपनिषद[3] में ’एकायन’ विद्या का नामोल्‍लेख है किन्‍तु उसके प्रतिपाद्य, विषय की ओर कोई संकेत नहीं है। आज कल ‘पांचरात्र’ ही वैष्‍णवगामों का प्रतिनिधि माना जाता है। शतपथ ब्राह्मण[4] में पांचरात्र सत्र का वर्णन मिलता है जिसको नारायण ने समस्‍त प्राणियों पर अधिपत्‍य प्राप्‍त करने के लिये पांच दिनों तक किया था। किन्‍तु इस सत्र के अध्‍यात्मिक रहस्‍यों का पता नहीं चलता। उत्‍पल की स्‍पन्‍द कारिका में पांचरात्र श्रुति, पांचरात्र उपनिषद एवं पांच रात्र संहिता से अनेक उद्वरण दिये हैं, किन्‍तु अब यह ग्रन्‍थ प्राप्‍त नहीं होते हैं। महाभारत के नारायणीयोपाख्‍यान[5] में सर्वर प्रथम इस आगम के सिद्धान्‍तों का प्रतिपादन किया गया है। पांचरात्र का दूसरा नाम ‘भागवत’ या ‘सात्‍वत’ है।

वैष्‍णवों का दूसरा आगम ‘वैखानस आगम’ है, जिसका सम्‍बन्‍ध कृष्‍ण यजुर्वेद की ‘औखेय’ शाखा से बतलाया जाता है। यह आगम, पांचरात्र के समान प्राचीन एवं प्रामाणिक होने पर भी, उतना ही प्रख्‍यात नहीं है। इस आगम के केवल चार ग्रन्‍थ अब तक उपलब्‍ध हुए हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1, 22, 17-18
  2. विष्‍णुगोपि:
  3. 7-1-2
  4. 13-6-1
  5. शान्ति- 335,346

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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