हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 91

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
हित वृन्‍दावन

यद्यपि राजत अवनि पर सबते ऊँचौ आहि।
ताकी सम कहिये कहा श्रीपति बंदत ताहि।।
तजि के वृन्‍दा विपिन कौं और तीर्थ जे जात।
छाँडि विमल चिंतामणिहिं कौड़ी कौं ललचात।।

प्रश्‍न यह होता है कि यदि भूतल-स्थित प्रगट-वृन्‍दावन ही नित्‍य-वृन्‍दावन है, तो उसकी इस प्रकार प्रतीति हर एक को क्‍यों नहीं होती ? श्री ध्रुवदास जी उत्‍तर देते है :-

‘इसमें दोष दृष्टि का है, द्दश्‍य कहा नहीं है। वृंदावन अपने अनंत प्रेम-वैभव को लेकर नित्‍य प्रकाशित है आँख रहते हुए न दीखना माया का रूप हे। द्दश्‍यमान रज्‍जु में सर्प की मिथ्‍या प्रतीति को ही माया कहते है। सारे संसार को मोह-गर्त में डालने वाली यह श्रीकृष्‍ण की माया ही है, जिसके कारण वृंदावन-रूपी रत्‍न को अपने बीच में पाकर भी हम उसको पहिचान नहीं पाते और उसका निरादर कर देते है’-

प्रकट जगत में जगमगै वृंदा विपिन अनूप।
नैन अछत दीसत नहीं यह माया कौ रूप।।
पाइ रतन चीह्नौं नहीं दीन्‍हौं करतें डार।
यह माया श्रीकृष्‍ण की मोह्यौ सब संसार।।[1]

जिन रसिक उपासकों की दृष्टि सहज प्रेम के उन्‍मेष से निर्मल बनी है, उनको भूतल-स्थिर वृन्‍दावन के खग, मृग, वन-बेली प्रेममय दिखलाई दिये हैं और उन्‍होनें इन सबका दुलार अपनी रचनाओं में किया है। वृंदावन के वृक्षों का गान करते हुए व्‍यासजी कहते हैं- ‘मुझको वृन्‍दावन के वृक्ष प्‍यारे लगते है। जिनको देखकर सम्‍पूर्ण कामनायें विलीन हो जाती हैं वे राधा-मोहन इनके नीचे विहार करते हैं। यह प्रेमामृत से सींचे हुए हैं, इसीलिये इनके नीचे माया-काल प्रवेश नहीं कर पाते। इन वृक्षों की एक शाखा तोड़ने से श्री हरि को कोटि गौ-ब्रह्मणों की हत्‍या से अधिक कष्‍ट होता है। रसिकों को यह सब कल्‍पवृक्ष मालूम होते हैं और विंमुखों को ढ़ाक-पिलूख दिखलाई देते हैं। इनका भजन जिह्वा के सम्‍पूर्ण स्‍वादों को छोड़ कर किया जाता है। गोपियों ने गृहादिक की सुख-संपत्ति को छोड़ कर इनका भजन किया था। यही रस पान करके परीक्षित ने भोजन छोड़ दिया था और शुक-मुनि को अपने ब्रह्मज्ञान से असंतोष हो गया था। मैंने पपीहा बन कर वृन्‍दावन-घन का सेवन किया है और मेरे दुख के सर-सरिता सूख गये हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वृन्‍दावन शतक

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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