श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
हित वृन्दावन
उपास्य तत्व के साथ उसके परम-पद, लोक किंवा स्थान की योजना वेदों के समय से ही होती चली आई है। वेदों और उपनिषदों में त्रिपाद्विभूति, महिमा, विष्णुपद, ब्रह्मलोक, परमव्योम, गुहा आदि की योजनाएँ देखने को मिलती हैं। ऋग्वेद और यजुर्वेद में जहाँ ‘गोपविष्णु’ का उल्लेख है वहाँ उनके लोक का भी है, जिसमें बड़े-बड़े सींग वाली गायें इधर उधर घूमती रहती हैं-‘यत्र गावो भूरि श्रृंगा आयास:’’। वृहदारण्यक उपनिषद्[1] और छान्दोग्य उपनिषद्[2] में ब्रह्मलोक का वर्णन है जहाँ पहुँच कर जीव को फिर भव-विप्लव में लौटना नहीं पड़ता-‘‘ब्रह्मलोक मभिसम्पद्यते न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते।’’[3] इसके अतिरिक्त हर एक देवता के भी लोक निर्दिष्ट हैं- जैसे अग्निलोग, वायुलोक, आदित्यलोक आदि। इन सब लोकों, पदों और स्थानों का स्वरूप, स्वभावत:, इनके अधिष्ठातृ देवता के अनुरूप होता है। वैष्णव संप्रदायों के उदय के साथ, प्रधानतया आगमों और पुराणों पर आधारित, वैष्णव उपास्य-तत्व का विकास हुआ और विभिन्न उपास्य स्वरूपों के अनुरूप वैकुण्ठ, गो-लोक आदि स्थानों की योजना को महत्व मिला। इस योजना में वृन्दावन गोलोक का एक विशेष भाग है और रासलीला का स्थान होने के कारण सर्वश्रेष्ठ है। प्रकट लीला और अप्रकट लीला के भेद से वृन्दावन के दो रूप माने गये हैं- एक भू-वृन्दावन और दूसरा त्रिपाद्विभूतिस्थ किंवा गोलोकस्थ वृन्दावन और दोनों का अभेद प्रतिपादित किया गया है। विष्णु पुराण में भगवान की तीन शक्तियाँ मानी गई हैं- ह्लादिनी, संधिनी और संवित्। इनमें से वृन्दावन संधिनी शक्ति का विलास है और चिन्मय रूप है। राधावल्लभीय सिद्धान्त में प्रेम का प्रथम सहज रूप, उसकी सहज सुन्दर आकृति सुन्दर आकृति, श्री वृन्दावन है। इस सिद्धान्त में सभी रूप प्रेम के ही रूप हैं, किन्तु इन सब में प्रेम के प्रकाश का तारतम्य रहता है, इनमें प्रेम की शुद्ध, पूर्ण एवं स्वभाविक अभिव्यक्ति नहीं होती। अपने जिन चार रूपों में प्रेम पूर्ण शुद्ध स्थिति में व्यक्त होता है, उनको प्रेम का ‘सहज रूप’ कहा जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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