हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 38

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-प्रमेय


श्रीहित हरिवंश की रचनाओं से सिद्ध होने वाला प्रमेय तत्‍व ‘हित’ किंवा ‘प्रेम’ है। उपासना के क्षेत्र में प्रेम का महत्‍व सभी उपासकों को स्‍वीकार और सभी ने इसको भगवत- प्राप्ति का श्रेष्‍ठतम साधन माना है। वैष्‍णवागमों एवं पुराणों से लेकर कृष्‍णोपासक एवं रामोपासक संप्रदायों तक सर्वत्र इसकी महिमा गाई गई है। अनेकों स्‍थानों में इसको भगवान का अभिन्‍न-स्‍वरूप मानकर इसकी साध्‍यता को स्‍वीकार किया गया है। यह सब होते हुए भी प्रत्‍येक वैष्‍णव-सम्‍प्रदाय में आराध्‍य-तत्‍व विष्‍णु, नारायण किंवा भगवान ही हैं और उनहीं को लेकर विभिन्‍न सम्‍प्रदायों के दर्शन एवं उपासना-पद्धतियों का निर्माण हुआ है। जिन्‍होंने प्रेम की उपासना करनी चाही है, उन्‍होंने भगवान और प्रेम को अभिन्‍न मानकर ऐसा किया है। कुछ लोगों ने भगवान और प्रेम में शक्तिमान और शक्ति का सम्‍बन्‍ध और दूसरों ने गुणी और गुण का संबन्‍ध माना है।

शक्ति एवं गुण मानने पर प्रेम स्‍वभावत: भगवान के अधीन बन जाता है, क्‍योंकि भगवान की सम्‍पूर्ण शक्तियां भगवान के अधीन हैं। साथ ही यह भी सर्वर स्‍वीकार किया जाता है कि भगवान सर्वथा प्रेमाधीन है कि भगवान प्रेम के अधनी हैं और प्रेम भगवान के अधीन है। इनमें से भगवान की प्रेमाधीनता तो बन जाती है, प्रेम की भगवदधीनता नहीं बनती। प्रेम का यह सर्वानुभूत स्‍वभाव है कि वह जिस आधार में उदित होता है, उसको अधीन बनाता ही उदित होता है। भगवान मे यह नित्‍य उदित है अत: भगवान की प्रेम-वश्‍यता नित्‍य, स्‍वाभाविक एवं सम्‍पूर्ण है। प्रेम को, इसलिये भी , भगवदधीन कहा गया है कि भगवान जिस पर कृपा करते हैं उसको प्रेम-दान देते हैं, किन्‍तु भगवान पहिले प्रेमी बनकर ही प्रेम-दान कर सकते हैं, अन्‍यथा नहीं। प्रेम-दान करने के पूर्व वे प्रमोधीन बनते हैं।

इस प्रकार प्रेम ही एक ऐसा तत्त्व सिद्ध होता है जिसके आधीन भगवान और भक्‍त ‘समान रूप से रहते हैं और यहीं से श्रीहित हरिवंश का सिद्धान्‍त आरंभ होता है। उन्‍होंने बतलाया है कि प्रेम ही एक मात्र स्‍वतन्‍त्र एवं अंतिम सत्ता है एवं भगवान, भक्ति और भक्‍त इसके ही विभिन्‍न रूप हैं। सम्‍पूर्ण दृश्‍य–अदृश्‍य प्रपंच इस प्रेम पर-तत्‍व का ही विलास है, जहाँ वह विभिन्‍न नाम-रूपों में क्रीड़ा करता रहता है। प्रेम ही परमाराध्‍य भगवत-तत्‍व है और यही परम ज्ञान का प्रयोजक एवं ज्ञान-घन-स्‍वरूप है। प्रेम ही आत्‍मा है, क्‍योंकि श्रुति ने आत्‍मा को प्रियता का एकमात्र आस्‍पद बतलाया है।[1] श्रीहित हरिवंश को प्रेम-स्‍वरूप श्री राधा से प्रेम-मंत्र की दीक्षा मिली थी, अत: उनको प्रेम का दर्शन गुरु रूप में प्राप्‍त हुआ था। प्रेम-गुरु के लिये उनके द्वारा प्रयुक्‍त शब्‍द ‘हित’ है जो परम प्रेम के अन्‍दर सहज रूप से स्थित अन्‍य को सुखी करने की वृत्ति का द्योतक है। राधावल्‍लभीय सम्‍प्रदाय में प्रेम के लिये ‘हित’ शब्द का ही प्रयोग बहुधा किया जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आत्‍मनस्‍तु कामाय सर्वं प्रियं भ‍वति। वृह. उ. 2-4-5

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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