श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त-प्रमेय
शक्ति एवं गुण मानने पर प्रेम स्वभावत: भगवान के अधीन बन जाता है, क्योंकि भगवान की सम्पूर्ण शक्तियां भगवान के अधीन हैं। साथ ही यह भी सर्वर स्वीकार किया जाता है कि भगवान सर्वथा प्रेमाधीन है कि भगवान प्रेम के अधनी हैं और प्रेम भगवान के अधीन है। इनमें से भगवान की प्रेमाधीनता तो बन जाती है, प्रेम की भगवदधीनता नहीं बनती। प्रेम का यह सर्वानुभूत स्वभाव है कि वह जिस आधार में उदित होता है, उसको अधीन बनाता ही उदित होता है। भगवान मे यह नित्य उदित है अत: भगवान की प्रेम-वश्यता नित्य, स्वाभाविक एवं सम्पूर्ण है। प्रेम को, इसलिये भी , भगवदधीन कहा गया है कि भगवान जिस पर कृपा करते हैं उसको प्रेम-दान देते हैं, किन्तु भगवान पहिले प्रेमी बनकर ही प्रेम-दान कर सकते हैं, अन्यथा नहीं। प्रेम-दान करने के पूर्व वे प्रमोधीन बनते हैं। इस प्रकार प्रेम ही एक ऐसा तत्त्व सिद्ध होता है जिसके आधीन भगवान और भक्त ‘समान रूप से रहते हैं और यहीं से श्रीहित हरिवंश का सिद्धान्त आरंभ होता है। उन्होंने बतलाया है कि प्रेम ही एक मात्र स्वतन्त्र एवं अंतिम सत्ता है एवं भगवान, भक्ति और भक्त इसके ही विभिन्न रूप हैं। सम्पूर्ण दृश्य–अदृश्य प्रपंच इस प्रेम पर-तत्व का ही विलास है, जहाँ वह विभिन्न नाम-रूपों में क्रीड़ा करता रहता है। प्रेम ही परमाराध्य भगवत-तत्व है और यही परम ज्ञान का प्रयोजक एवं ज्ञान-घन-स्वरूप है। प्रेम ही आत्मा है, क्योंकि श्रुति ने आत्मा को प्रियता का एकमात्र आस्पद बतलाया है।[1] श्रीहित हरिवंश को प्रेम-स्वरूप श्री राधा से प्रेम-मंत्र की दीक्षा मिली थी, अत: उनको प्रेम का दर्शन गुरु रूप में प्राप्त हुआ था। प्रेम-गुरु के लिये उनके द्वारा प्रयुक्त शब्द ‘हित’ है जो परम प्रेम के अन्दर सहज रूप से स्थित अन्य को सुखी करने की वृत्ति का द्योतक है। राधावल्लभीय सम्प्रदाय में प्रेम के लिये ‘हित’ शब्द का ही प्रयोग बहुधा किया जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति। वृह. उ. 2-4-5
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