हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 90

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
हित वृन्‍दावन

कही नित केलि रस खेल वृन्‍दाविपिन
कुंजतैं कुंज डोलनि बखानी।
पट न परसंत, निकसंत बीथिनु सघन-प्रेम विह्वल सुनहिं देहमानी।।
मगन जित तित चलत छिन सुडगमग मिलत,
पंथ बन देत अति हेत जानी।
रसिक हित परम आनंद अवलोकितन,
सरस विस्‍तरत हरिवंश बानी।।[1]

ध्रुवदासजी ने बतलाया है- ‘जिन कोमल फूली लतओं में युगल रस-विहार करते हैं, वहाँ की बल्‍लरियाँ सकुच कर प्रेम-विवस हो जाती हैं’-

कोमल फूली लतनि में करत केलि रस माँहि।
तहँ-तहँ की बल्‍ली सबै सकुचि बिवस ह्वै जांहि॥[2]

हित प्रभु ने प्रेम-स्‍वरूप वृन्‍दावन को इस भूतल पर ही स्थित माना हे और इसके अतिरिक्‍त किसी अन्‍य गौलोकस्‍थ वृन्‍दावन का उल्‍लेख कहीं नहीं किया। प्रेमोपासना भाव की उपासना है और प्रकट-भाव ही उपासनीय होता है। अप्रकट-भाव को उपासना नहीं की जा सकती। प्रकट-वृन्‍दावन ही नित्‍य-वृन्‍दावन है। ध्रुवदास जी बतलाते हैं- 'यद्यपि वृन्‍दावन पृथ्वी पर स्थित है, किन्‍तु वह सबसे ऊँचा है। जिसकी वंदना स्‍वयं विष्‍णु करते हैं, उसकी समता मैं किसके साथ करूं? ‘जो लोग वृन्‍दावन को छोड़ कर अन्‍य तीर्थो में जाते है वे विमल चिंतामणि की छोड़ कर कौड़ी के लिये ललचाते हैं।‘

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. से. वा. 4810
  2. रंग विनोद

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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