श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
हित वृन्दावन
वृन्दावन को, रसिकों ने, प्रेरक प्रेम की मूर्ति माना है। प्रेरक प्रेम में भोक्ता-भोग्य की उभय रतियाँ एक बन कर मूर्तिमान होती हैं। अत: प्रेरक प्रेम युगल का समान पक्षपाती और पोषक होता है किन्तु प्रेम में भोग्य की स्वभाविक प्रधानता होती है और प्रेरक प्रेम भी भोग्य-प्रधान है। हितप्रभु ने, इसीलिये वृन्दावन को ‘राधा-विहार-विपिन' कहा है और अपने मन को उसी में रम जाने के लिये प्रोत्साहित किया है, राधा करावचित पल्लववल्लरीके, उन्होंने श्री राधा को केवल वृन्दावन में ही प्रकट बतलाया है-यद् वृन्दावनमात्रगोचरमहो,’[2] ओर अपनी कोटि जन्मान्तरों की मधुर आशा को सर्वत्र से हटा कर वृन्दावन-भूमि पर स्थापित किया है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रा.सु. नि 13
- ↑ रा. सु. नि. 76
- ↑ रा. सु. नि. 216
- ↑ हमको उन सुशास्त्रों से अथवा उनके द्वारा प्रवर्तित तथा सज्जनों के द्वारा गृहीत उन मार्गो से क्या प्रयोजन है जिनमें न तो प्रेम-मूर्ति श्री राधा की महिमा-सुधा है और न उनका भाव है। इसी प्रकार, उस परम बैकुण्ठ-लक्ष्मी को भी लेकर हम क्या करें जहाँ हमारी श्री राधा नहीं है। हम तो यह चाहते हैं कि कोटि जन्मांतरों में भी हमारी मधुर-आशा वृन्दावन-भूमि पर लगी रहे।
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