हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 87

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
हित वृन्‍दावन

वृन्‍दावन को, रसिकों ने, प्रेरक प्रेम की मूर्ति माना है। प्रेरक प्रेम में भोक्ता-भोग्‍य की उभय रतियाँ एक बन कर मूर्तिमान होती हैं। अत: प्रेरक प्रेम युगल का समान पक्षपाती और पोषक होता है किन्‍तु प्रेम में भोग्‍य की स्‍वभाविक प्रधानता होती है और प्रेरक प्रेम भी भोग्‍य-प्रधान है। हितप्रभु ने, इसीलिये वृन्‍दावन को ‘राधा-विहार-विपिन' कहा है और अपने मन को उसी में रम जाने के लिये प्रोत्‍साहित किया है,

राधा करावचित पल्‍लववल्‍लरीके,
राधापदांकविलसन् मधुरस्‍थलीके।
राधायशोमुखरमत्तखगावली के,
राधा-विहार-विपिने रमतां मनो में।।[1]

उन्‍होंने श्री राधा को केवल वृन्‍दावन में ही प्रकट बतलाया है-यद् वृन्‍दावनमात्रगोचरमहो,’[2] ओर अपनी कोटि जन्‍मान्‍तरों की मधुर आशा को सर्वत्र से हटा कर वृन्‍दावन-भूमि पर स्‍थापित किया है-

किंवा नस्‍तै: सुशास्‍त्रै: किमथ तदुदितैर्वर्त्‍मभि: सद्गृहीतै।
यत्रास्ति प्रेममूर्त्ते र्नहि महिमसुधा नापि भावस्‍तदीय:।।
किंवा वैकुण्‍ठलक्ष्‍म्‍याप्‍यहह परमया यत्र में नास्ति राधा।
किंत्‍वाशाप्‍यस्‍तु वृन्‍दावनभुवि मधुराकोटिजन्‍मान्‍तरेऽपि।।[3][4]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रा.सु. नि 13
  2. रा. सु. नि. 76
  3. रा. सु. नि. 216
  4. हमको उन सुशास्त्रों से अथवा उनके द्वारा प्रवर्तित तथा सज्‍जनों के द्वारा गृहीत उन मार्गो से क्‍या प्रयोजन है जिनमें न तो प्रेम-मूर्ति श्री राधा की महिमा-सुधा है और न उनका भाव है। इसी प्रकार, उस परम बैकुण्‍ठ-लक्ष्‍मी को भी लेकर हम क्‍या करें जहाँ हमारी श्री राधा नहीं है। हम तो यह चाहते हैं कि कोटि जन्‍मांतरों में भी हमारी मधुर-आशा वृन्‍दावन-भूमि पर लगी रहे।

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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