हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 86

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
हित वृन्‍दावन

बन की लीला लालहिं भावै।
प्रत्र-प्रसून बीच प्रतिबिं‍बहिं नखसिख प्रिया जनावै।।
सकुचि न सकत प्रगट परिरंभन अलि-लंपट दुरि धावै।
संभ्रम देति कुलकि कल कामिनी रतिरण-कलह मचावै।।
उलटी सवै समुझि नैननि मैं अंजन-रेख बनावै।
(जैश्री) हित‍हरिवंश प्रीतिरीति बस सजनी श्‍याम कहावै।।

रस-लीलाओं के निर्माण में वृन्‍दावन के सहयोग के अन्‍य अनेक सुन्‍दर उदाहरण राधावल्‍लभीय रसिकों की वाणियों में देखे जा सकते हैं वास्‍तव में, वृन्‍दावन के सहयोग से ही राधा-माधव की प्रीति का विशदीकरण होता है और वे प्रेम रस का नित्‍य-नूतन आस्‍वाद करने में समर्थ बनते हैं। प्रबोधानंद सरस्‍वती कृत एक शतक में वृन्‍दावन के इस कार्य के लिये कृतज्ञता प्रकाशित करते हुए श्री श्‍यमासुन्‍दर कहते है,-‘अहो मेरी और श्री राधा की जो केलि-चातुर्यधारा है, एवं हम दोनों की एक-दूसरे के प्रति जो अत्‍युच्‍च काम-तृष्‍णा निरवधि बढ़ती रहती हैं, तथा हम दोनों के प्रेम-बंधन में जो नित्‍य गाढ़ बल लगते हैं, हे रसखान वृन्‍दावन, यह सब तेरी शक्ति का ही चमत्‍कार हैं’-

श्री राधाय ममच यदहो केलिचातुर्यधारा,
यच्चात्‍युच्चैर्निर‍वधि वीरवृद्धयते कामतृष्‍णा ।।
गाढ़ गाढ़ यदतिवलते कोऽपि नौ प्रेमबन्‍ध,
सर्व वृन्‍दावन-रस-खने ! शक्ति-विस्‍फूर्जितं ते ।।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शतक 11-30

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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