हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 85

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
हित वृन्‍दावन

वृन्‍दावन की एकरस प्रेमरूपता को अनेक सुन्‍दर प्रकारों में व्‍यक्त किया गया है। ‘श्री वृन्‍दावन में आनन्‍द-सिन्‍धु की तरंगें उठती रहती हैं। वहाँ अनुराग के मेघों के मन्द वर्षणी में छवि के दो फूल श्‍याम-श्‍यामा फूले रहते हैं। वृन्‍दावन-रूप सरोवर में गम्‍भीर प्रेम-नीर भरा है जिसमें दोनों रसिक मुग्‍ध भाव से मज्‍जन करते रहते हैं:-

श्री वृंदावन माँहि, आनंद सिधु तरंग उठैं।
घन अनुराग चुचाँहिं, फूले छवि के फूल द्वै।।
वृन्‍दावन सरवर भस्यौ, प्रेम-नीर गंभीर।
तामें मज्‍जत रसिक दोऊ, बिसरे नैननि-चीर।।[1]

काव्‍य-रस की दृष्टि से वृन्‍दावन को उद्दीपन विभाव माना जा सकता है और वह श्‍याम-श्‍यामा की प्रीति का उद्दीपन करता भी है।

किन्‍तु वृन्‍दावन-रस-रीति में श्‍यामाश्‍याम की उज्‍ज्‍वल रस-मयी लीलाओं के निर्माण में वृन्‍दावन का सक्रिय सहयोग रहता हैं। अनेक लीलायें ऐसी होती हैं जिनका प्रवर्तन ही वृन्‍दावन के द्वारा होता है। वृन्‍दावन के द्वारा आयोजित लीलाओं की विशेषता यह है कि उनमें रस के बड़े विरल अंगों का प्रकाशन होता है। हिताचार्य ने अपने एक पद में इस प्रकार की एक लीला का वर्णन किया है। वे कहते हैं, ‘वृन्‍दावन के द्वारा आयोजित लीलायें श्‍यामसुन्‍दर को प्रिय हैं। वृन्‍दावन के पत्र-प्रसून इतने निर्मल हैं कि उनमें श्‍याम-श्‍यामा के प्रतिविंब पड़ते रहते हैं। किन्‍तु कभी ऐसा होता है कि इनमें पड़ा हुआ श्‍याम सुन्‍दर का प्रतिविंब भी श्रीराधा का ही प्रतिविंब मालूम होता है। अपने और अपनी प्रियतमा के प्रतिविंबों की समता होने पर श्‍याम सुन्‍दर संकोच में पड़ जाते हेा और इस विचार से कि प्रिया का परिरंभण करने की चेष्‍टा करने पर कहीं वे अपने प्रतिविंब का ही आलिंगन न करलें, वे श्रीराधा के स्‍वाभाविक अंग-सौरभ का अनुसंधान पकड़ कर अपने प्रतिबिंब को बचाते हुए चलते हैं। उधर श्री राधा भी अपने प्रियतम को संभ्रम देती है और नायक की भाँति रतिगण-कलह मचाती हैं। अपनी प्रिया का स्‍पर्श करने की प्रत्‍येक चेष्‍टा विफल होती देख कर और यह समझ कर कि इस समय सारी बातें उलटी हो रही है, वे अपने हाथ से अपने नेत्रों में अंजन की रेखा बनाते हैं और इस प्रकार अपनी प्रिया की सखी बन कर उनको प्राप्‍त कर लेते हैं। क्‍योंकि कि वृन्‍दावन के पत्र-प्रसूनों में सखियों का प्रतिविंब प्रिया-रूप में नहीं पड़ता।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री ध्रुवदास

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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