हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 88

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
हित वृन्‍दावन

रस-रूपा श्री राधा का यह अद्भुत रस-धाम उन्‍हीं की कृपा से उपासक के दृष्टि-पथ में आता है। हिताचार्य ने अपने एक पद में लीलागान से पूर्व वृन्‍दावन को प्रणाम किया है और श्री राधा की कृपा के बिना उसको सबके मनों के लिये अगम्‍य बताया है।

प्रथम यथामति प्रणऊँ वृन्‍दावन अतिरम्‍य।
श्री राधिका कृपा बिनु सबके मननि अगम्‍य।।[1]

श्री राधा और वृन्‍दावन का इस प्रकार का सम्‍बन्‍ध देख कर हितप्रभु के शिष्‍य श्री प्रबोधानंद सरस्‍वती ने अपने शतक में इन दोनों की प्राप्ति को एक दूसरे के आश्रित बताया है। वे कहते है-‘जब तक श्री राधा के पद-नख-मणि की चन्द्रिका का आविर्भाव नहीं होता, तब तक मन-चकोरी को मोद प्राप्‍त नहीं होता, और जब तक वृन्‍दावन भूमि में गाढ़-निष्‍ठा नहीं होती तब तक श्री राधा-चरणों की करुणा का पूर्ण उदय नहीं होता।'

यावद्राधा पदनखमणी चन्द्रिका नाविरास्‍ते,
तावद् वृन्‍दावन भुवि मुद नैति चेतश्वकोरी।
यावद् वृन्‍दावन भुवि भवेन्नापि निष्‍ठा गरिष्‍ठा,
तावद्राधा चरणकरुणा नैव ताद्दश्‍युदेति।।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हि. च. 57
  2. वृंदा. महिमा. 13-2

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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