श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
द्विदल-सिद्धान्त
अतिशय प्रीति हुती अन्तर-गति हित हरिवंश चली मुकलित मन। श्री हित प्रभु को निकट-मान अधिक रुचिकर और सेवक जी ने अपनी वाणी के अंतिम प्रकरण में उसी का व्याख्यान किया है। निकट-मान का बड़ा सरस वर्णन श्री हितप्रभु ने अपने एक पद में किया है। उन्होंने बतलाया है-‘एक बार प्रेम-विहार करते हुए श्री श्यामसुन्दर अपनी प्रिया की अदभुत अंग-शोभा का दर्शन करके -विथकित वेपथगात’ हो गये। नागरी प्रिया ने अधर-रस-दान के द्वारा उनको सावधान किया, किन्तु दूसरे क्षण में ही वे प्रेम की दूसरी प्रबल तरंग में पड़ गये। उनको ऐसा प्रतीत हुआ कि उन्होंने प्रिया के मुख में ‘रसाल विंबाधरों को प्रथम वार ही देखा है और वे अत्यन्त दीनतापूर्वक प्रिया से अधर-रस-दान की प्रार्थना करने लगे। उनके इस विभ्रम को देख कर प्रिया मानवती हो गई और उनके इस अप्रत्याशित मान को देख कर श्यामसुन्दर विरह-दुख से अत्यन्त कातर एवं अधीर बन गये। प्रिया ने सदय होकर उनको भुजाओं में भर लिया और दोंनों के प्रीति-पूर्वक मिलने से कुछ ऐसे सुख की निष्पत्ति हुई कि उस दिन की सन्ध्या एक निमेष के समान व्यतीत हो गई। हित हरिवंश भुजनि आकर्षे लै राखे उर माँझ। संयोग और वियोग के युगपत् अनुभव से केवल बाह्य आकार में कुछ-कुछ मिलने वाली प्रेम की एक तंरग है, जिसका वर्णन वृन्दावन-रस के रसिकों ने किया है और गौड़ीय-भक्ति-रस-साहित्य में भी जिसके वर्णन प्राप्त होते हैं। इस प्रेम-तरंग को ‘प्रेम वैचित्य’ कहते हैं। श्रीहितप्रभु ने इसका उदाहरण अपने राधा-सुधानिधि स्तोत्र में दिया है। उनहोंने कहा है - ‘प्रियतम के अंक में स्थित होते हुए भी अकस्मात् ‘हा मोहन’! कह कर प्रलाप करने वाली, श्यामसुन्दर के अनुराग मद की विह्वलता से मोहन अंगो वाली कोई अनिर्वचनीय श्यामा-मणि निकुंज की सीमा में उत्कर्ष को प्राप्त है’।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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