हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 65

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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द्विदल-सिद्धान्‍त

यहाँ पर निकट संयोग में रहते हुए भी प्रेमोत्‍कर्ष के कारण श्री राधा के चित्‍त में वियोग का उदय हो गया है और उनका संयोगानुभव सर्वथा लुप्‍त हो गया है। संयोगानुभव के सर्वथा अभाव के कारण, प्रत्‍यक्ष संयोग होते हुए भी, प्रेम-वैचित्य की गणना वियोग के भेदों में की गर्इ है और वियोग का अनुभव एक-साथ नहीं होता। उधर संयोग और वियोग के युगपत् अनुभव की स्थिति, वृन्‍दावन-रस में आस्‍वादित होने वाले प्रेम का सामान्‍य लक्षण है। तथा अन्‍य रसों के साथ यह उसकी दूसरी भिन्‍नता है।

वृन्‍दावन-रस की तीसरी विलक्षणता रस-स्थिति संबन्धि‍नी है। इस रस-सिद्धान्‍त में भोक्‍ता और भोग्‍य-नायक और नायिका में-समान रस की स्थिति मानी गई है। श्री हितप्रभु ने युगल-राधामाधव-के रस को ‘समतूल’ कहा है, ‘दंपति रस समतूल’ एवं दोनों को एक-दूसरे के गुण गणों के द्वारा पराजित माना है -‘बनी हित हरिवंश जोरी उभय गुन गान मात’।

श्रीध्रुवदास जी इस सिद्धान्‍त को सपष्‍ट करते हुए कहते हैं - ‘राधामाधव प्रेम की राशि हैं और दोनों परम रसिक हैं। दोनों की एक वय है और दोनों में रस की स्थिति भी एक है। दोनों ने गाढ़ आलिंगन से विमुक्‍त न होने की टेक ले रखी है। इन दोनों में परस्‍पर प्रेम की अद्भुत रुचि सहज रूप से होती है इनको देखकर ऐसा मालूम होता है कि एक ही रंग दो शीशियों मे भर दिया गया है। श्‍याम के रंग से श्‍याम रँगी है, और श्‍याम के रँग से श्‍याम रँग रहे हैं। इन दोनों के तन, मन एवं प्राण सहज रूप से एक हैं; यह कहने भर को दो नाम धारण किये हुए हैं। कभी प्रिया प्रियतम हो जाती हैं और कभी प्रियतम प्रिया हो जाते हैं। इस प्रेम-रस में पड़कर इनको यह पता नहीं है कि रात-दिन किधर व्‍यतीत हो रहे हैं।

प्रेम रासि दोउ रसिक वर एक वैस रस एक।
निमिष न छूटत अंग अँग यहै दुहुँनि कै टेक।।
अदभुत रुचि सखि प्रेम की सहज परस्‍पर होइ।
जैसे एकहि रँग सौं भरिये सीसी दोइ।।
श्‍याम रंग श्‍यामा रँगी श्‍यामा के रँग श्‍याम।
एक प्रान तन-मन सहज कहिवैं कौं दोउ नाम।।
कबहुँ लाडि़ली होत प्रिय, लाल प्रिया ह्वै जात।
नहिं जानत यह प्रेम रस निसि दिन कहाँ विहात।।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री ध्रुवदास-रंग बिहार

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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