श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
द्विदल-सिद्धान्त
यहाँ पर निकट संयोग में रहते हुए भी प्रेमोत्कर्ष के कारण श्री राधा के चित्त में वियोग का उदय हो गया है और उनका संयोगानुभव सर्वथा लुप्त हो गया है। संयोगानुभव के सर्वथा अभाव के कारण, प्रत्यक्ष संयोग होते हुए भी, प्रेम-वैचित्य की गणना वियोग के भेदों में की गर्इ है और वियोग का अनुभव एक-साथ नहीं होता। उधर संयोग और वियोग के युगपत् अनुभव की स्थिति, वृन्दावन-रस में आस्वादित होने वाले प्रेम का सामान्य लक्षण है। तथा अन्य रसों के साथ यह उसकी दूसरी भिन्नता है। वृन्दावन-रस की तीसरी विलक्षणता रस-स्थिति संबन्धिनी है। इस रस-सिद्धान्त में भोक्ता और भोग्य-नायक और नायिका में-समान रस की स्थिति मानी गई है। श्री हितप्रभु ने युगल-राधामाधव-के रस को ‘समतूल’ कहा है, ‘दंपति रस समतूल’ एवं दोनों को एक-दूसरे के गुण गणों के द्वारा पराजित माना है -‘बनी हित हरिवंश जोरी उभय गुन गान मात’। श्रीध्रुवदास जी इस सिद्धान्त को सपष्ट करते हुए कहते हैं - ‘राधामाधव प्रेम की राशि हैं और दोनों परम रसिक हैं। दोनों की एक वय है और दोनों में रस की स्थिति भी एक है। दोनों ने गाढ़ आलिंगन से विमुक्त न होने की टेक ले रखी है। इन दोनों में परस्पर प्रेम की अद्भुत रुचि सहज रूप से होती है इनको देखकर ऐसा मालूम होता है कि एक ही रंग दो शीशियों मे भर दिया गया है। श्याम के रंग से श्याम रँगी है, और श्याम के रँग से श्याम रँग रहे हैं। इन दोनों के तन, मन एवं प्राण सहज रूप से एक हैं; यह कहने भर को दो नाम धारण किये हुए हैं। कभी प्रिया प्रियतम हो जाती हैं और कभी प्रियतम प्रिया हो जाते हैं। इस प्रेम-रस में पड़कर इनको यह पता नहीं है कि रात-दिन किधर व्यतीत हो रहे हैं। प्रेम रासि दोउ रसिक वर एक वैस रस एक। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्री ध्रुवदास-रंग बिहार
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