श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
द्विदल-सिद्धान्त
नदीनां च वधूनां च भुजंगानां च सर्वदा। जहाँ प्रेम उत्कर्ष को प्राप्त होता है वहाँ उसकी वामाता प्रकाशित हुए बिना नहीं रहती। इसीलिये नित्य-विहार में निर्हेतुक प्रणय-मान को स्वीकार किया गया है और यहाँ इसके बडे़ सुन्दर स्वरूप प्रत्यक्ष हुए हैं। प्रणय-मान की निहेंतुकता व्यञ्ञित करने के लिये श्री वृन्दावन में ऐसी कुंजों का वर्णन किया गया है जो ‘मान-कुंज’ कहलाती हे। वृन्दावन में प्रेम-विहार करते हुए नव-दंपति जब अनायास इनमें प्रविष्ट होते है, तब प्रिया की भ्रू-लता अकारण भंग हो जाती है और यह देख कर श्री श्यामसुन्दर अत्यन्त कातर भाव से अनुनय में प्रवृत्त हो जाते हैं। मान कुंज आये जबहिं कुंवरि भौंह भईं भंग। अहैतुक मान प्रेम का सहज अंग होने के कारण अनंत प्रकारों में घटित होता है। हित-चतुरासी में मान के अनेक प्रकार दिये हुए हैं। मोटे तौर पर इनको दो भेदों में बाँटा गया है-निकुंजान्तर-मान और निकट-मान। निकुंजान्तर- मान में श्री राधा अहैतुक मानवती होकर कुजान्तर में चली जाती है और जब सहचरी-गण उनको उनके प्रियतम की करूण-स्थिति का वर्णन सुनाती है, तब वह आतुर गति से उस कुंज की ओर चल पड़ती है जहाँ बैठे हुए श्री श्याम-सुन्दर उनके आगमन-मार्ग की ओर अधीर नेत्रों से देख रहे हैं। इस प्रकार के एक निकुंजांतर-मान के समय श्री राधा की आगाध प्रीति ‘अन्तर्गति’ बन गई थी, अपने आप में डूब गई थी। सखियों ने जब विदग्धता-पूर्वक उनको प्रियतम का स्मरण दिलाया, तब वह प्रीति उनके मन में मुकुलित हो उठी और दोनों रस-सागर निविड़-निकुंज में एक दूसरे से मिलकर उद्वेलित हो उठे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्री ध्रुवदास
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