हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 63

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

Prev.png
द्विदल-सिद्धान्‍त

नदीनां च वधूनां च भुजंगानां च सर्वदा।
प्रेम्णामपि गतिर्वक्रा कारणं तत्र नेष्‍यते।।

जहाँ प्रेम उत्‍कर्ष को प्राप्‍त होता है वहाँ उसकी वामाता प्रकाशित हुए बिना नहीं रहती। इसीलिये नित्‍य-विहार में निर्हेतुक प्रणय-मान को स्‍वीकार किया गया है और यहाँ इसके बडे़ सुन्‍दर स्‍वरूप प्रत्‍यक्ष हुए हैं। प्रणय-मान की निहेंतुकता व्‍यञ्ञित करने के लिये श्री वृन्‍दावन में ऐसी कुंजों का वर्णन किया गया है जो ‘मान-कुंज’ कहलाती हे। वृन्‍दावन में प्रेम-विहार करते हुए नव-दंपति जब अनायास इनमें प्रविष्‍ट होते है, तब प्रिया की भ्रू-लता अकारण भंग हो जाती है और यह देख कर श्री श्‍यामसुन्‍दर अत्‍यन्‍त कातर भाव से अनुनय में प्रवृत्‍त हो जाते हैं।

मान कुंज आये जबहिं कुंवरि भौंह भईं भंग।
चितै लाल पाँइनि परैं समुझि मान कौं अंग।।
ऐसे रस में हो प्रिये ऐसी जिय न विचार।
तासौं इती न चाहिये तन मन जो रहयौ हार।।
मेरें है गति एक, तुम पद-पंकज की प्रिये।
अपने हठ की टेक, छाँड़ि कृपा करि लाडिली।।[1]

अहैतुक मान प्रेम का सहज अंग होने के कारण अनंत प्रकारों में घटित होता है। हित-चतुरासी में मान के अनेक प्रकार दिये हुए हैं। मोटे तौर पर इनको दो भेदों में बाँटा गया है-निकुंजान्‍तर-मान और निकट-मान। निकुंजान्‍तर- मान में श्री राधा अहैतुक मानवती होकर कुजान्‍तर में चली जाती है और जब सहचरी-गण उनको उनके प्रियतम की करूण-स्थिति का वर्णन सुनाती है, तब वह आतुर गति से उस कुंज की ओर चल पड़ती है जहाँ बैठे हुए श्री श्‍याम-सुन्‍दर उनके आगमन-मार्ग की ओर अधीर नेत्रों से देख रहे हैं। इस प्रकार के एक निकुंजांतर-मान के समय श्री राधा की आगाध प्रीति ‘अन्‍तर्गति’ बन गई थी, अपने आप में डूब गई थी। सखियों ने जब विदग्‍धता-पूर्वक उनको प्रियतम का स्‍मरण दिलाया, तब वह प्रीति उनके मन में मुकुलित हो उठी और दोनों रस-सागर निविड़-निकुंज में एक दूसरे से मिलकर उद्वेलित हो उठे।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री ध्रुवदास

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः