हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 55

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-हित की रस-रूपता


बन है बाग सुहाग कौ राख्‍यौ रस में पागि।
रूप रंग के फूल दोउ प्रीति लता रहे लागि।।[1]

उपासक के चित्‍त में वृन्‍दावन-रति का उदबोध करने के लिये श्रीध्रुवदास ने यह उपाय बताए हैं- ‘उपासक को वृन्‍दावन का नाम रटना चाहिये, वृन्‍दावन का दर्शन करना चाहिये, वृन्‍दावन से प्री‍ति करनी चाहिये और वृन्‍दावन को अपने हृदय में अंकित करना चाहिये। उसको यदि विश्राम की चाह है तो उसे वृन्‍दावन को प्रणाम करना चाहिये और उसको पहिचानना चाहिये। इस प्रकार वृन्‍दावन का स्‍मरण करने पर उपासक के समस्‍त प्रतिबंधक कर्म लुप्‍त हो जाते हैं और फिर रस-भजन की नेह-बेलि उसके हृदय में उत्‍पन्‍न हो जाती है’[2]

इसी वृन्‍दावन-रस के कथन के लिए श्री हित हरिवंश का जन्‍म हुआ था। ‘हित चतुरासी’ के पदों में उन्‍होंने इसी का गान किया है।

करुणानिधि और कृपानिधि श्री हरिवंश उदार।
वृन्‍दावन-रस कहनि कौं प्रगट धरयौ अतवार।।[3]

हिताचार्य के शिष्‍य श्री हरिराम व्‍यास ने इस रस के प्रति अपना स्‍वाभाविक पक्षपात व्‍यक्‍त करते हुए इसको अन्‍य सब रसों से विलक्षण बताया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वृन्‍दावन शतक
  2. वृन्‍दावन शतक
  3. श्री ध्रुवदास-रसमंजरी

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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