श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त-हित की रस-रूपता
बन है बाग सुहाग कौ राख्यौ रस में पागि। उपासक के चित्त में वृन्दावन-रति का उदबोध करने के लिये श्रीध्रुवदास ने यह उपाय बताए हैं- ‘उपासक को वृन्दावन का नाम रटना चाहिये, वृन्दावन का दर्शन करना चाहिये, वृन्दावन से प्रीति करनी चाहिये और वृन्दावन को अपने हृदय में अंकित करना चाहिये। उसको यदि विश्राम की चाह है तो उसे वृन्दावन को प्रणाम करना चाहिये और उसको पहिचानना चाहिये। इस प्रकार वृन्दावन का स्मरण करने पर उपासक के समस्त प्रतिबंधक कर्म लुप्त हो जाते हैं और फिर रस-भजन की नेह-बेलि उसके हृदय में उत्पन्न हो जाती है’[2] इसी वृन्दावन-रस के कथन के लिए श्री हित हरिवंश का जन्म हुआ था। ‘हित चतुरासी’ के पदों में उन्होंने इसी का गान किया है। करुणानिधि और कृपानिधि श्री हरिवंश उदार। हिताचार्य के शिष्य श्री हरिराम व्यास ने इस रस के प्रति अपना स्वाभाविक पक्षपात व्यक्त करते हुए इसको अन्य सब रसों से विलक्षण बताया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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