हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 54

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-हित की रस-रूपता


प्रेम और मदन[1] के नित्‍य योग से यह रस नित्‍य निष्‍पन्‍न रहता है। वास्‍तव में इन दोनों के योग से ही मधुर रस की सृष्टि होती है। प्रेम[2] ही आस्‍वादित होकर रस कहलाता है। मदन केलि के योग से प्रेम आस्‍वाद्य बनता है। श्रीध्रुवदास कहते हैं कि प्रेम-तृषा की बेलि के लिये मदन के लिये जल के समान हैं। परम रसिक-नागर-नवल इस जल का पान करके प्रेम-तृषा के बेलि को हरी बनाये रखते हैं।

प्रेम तृषा की बेलि कौं केलि अदन रस आहि।
परम रसिक नागर नवल पीवत जीवत ताहि।।[3]

परस्‍पर की काम-केलि के योग से जिस प्रकार श्‍यामा-श्‍याम का प्रेम हरा बना रहता है, आस्‍वाद्य बना रहता है, उसी प्रकार रसिक उपासक का प्रेम इन दोनों के केलि के योग से रसरूप बना रहता है। श्री हितहरिवंश ने केलि-रसपान को अपना चरम सुख बताया है। ‘हित चतुरासी’ के एक सुंदर पद में प्रेमकेलि का वर्णन करके वे अंत में कहते हैं- ‘उभय प्रेमस्‍वरूपों के संगम-रूपी सिंधु में श्रृंगार केलि को जो कमल खिल रहा है, उससे अनवरत प्रवाहित होने वाले मकरंद का पान हरिवंशरूपी भ्रमर करता है।’

उभय संग सिंधु सुरत पूषण बंधु
द्रवत मकरंद हरिवंश अलि पावै।[4]

प्रेम और मदन के जो सिंधु श्‍यामाश्‍याम के हृदयों में प्रवाहित रहते हैं, उन्‍हीं का एक कण उपासक के हृदय में भी बहता रहता है और इस प्रकार यह रस राधाकृष्‍ण-निष्‍ठ रहता हुआ भी उपासक निष्‍ठ बना रहता है। इस रस के रसिकों का अनुभव ही इसका प्रमाण है।

इस नित्‍य–निष्‍पन्‍न रस का नाम ‘श्रीवृन्‍दावन-रस’ है। वृन्‍दावन-रति को रस का स्‍थायी भाव कहा जा सकता है। वृन्‍दावन-रति वास्‍तव में प्रेम-रति है। क्‍योंकि इस संप्रदाय के अनुसार, राधामाधव का अत्‍यंत रमणीय पारस्‍परिक प्रेम ही वृन्दावन के रूप में मूर्तिमान हुआ है। रसिक-उपासक एवं रसिक-शिरोमणि श्‍यामाश्‍याम समान रूप से इस प्रेम से आसक्‍त हैं और प्रेम-रति समानरूप से दोनों के रसानुभव का आधार बनी हुई है। वृन्‍दावन की प्रेमरति-रूपता के बडे़ सुंदर वर्णन राधावल्‍भीय वाणियों में मिलते हैं। श्रीध्रुवदास एक स्‍थान पर कहते हैं ‘वृन्‍दावन सुहाग का बाग है जो रस में पगा हुआ है। यहाँ की प्रीतिलता में रूप-रंग के दो फूल[5] लग रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अप्राकृत
  2. रति
  3. भजन कुंडलियाँ
  4. पद-81
  5. श्‍यामाश्‍याम

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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