श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त-हित की रस-रूपता
प्रेम तृषा की बेलि कौं केलि अदन रस आहि। परस्पर की काम-केलि के योग से जिस प्रकार श्यामा-श्याम का प्रेम हरा बना रहता है, आस्वाद्य बना रहता है, उसी प्रकार रसिक उपासक का प्रेम इन दोनों के केलि के योग से रसरूप बना रहता है। श्री हितहरिवंश ने केलि-रसपान को अपना चरम सुख बताया है। ‘हित चतुरासी’ के एक सुंदर पद में प्रेमकेलि का वर्णन करके वे अंत में कहते हैं- ‘उभय प्रेमस्वरूपों के संगम-रूपी सिंधु में श्रृंगार केलि को जो कमल खिल रहा है, उससे अनवरत प्रवाहित होने वाले मकरंद का पान हरिवंशरूपी भ्रमर करता है।’ उभय संग सिंधु सुरत पूषण बंधु प्रेम और मदन के जो सिंधु श्यामाश्याम के हृदयों में प्रवाहित रहते हैं, उन्हीं का एक कण उपासक के हृदय में भी बहता रहता है और इस प्रकार यह रस राधाकृष्ण-निष्ठ रहता हुआ भी उपासक निष्ठ बना रहता है। इस रस के रसिकों का अनुभव ही इसका प्रमाण है। इस नित्य–निष्पन्न रस का नाम ‘श्रीवृन्दावन-रस’ है। वृन्दावन-रति को रस का स्थायी भाव कहा जा सकता है। वृन्दावन-रति वास्तव में प्रेम-रति है। क्योंकि इस संप्रदाय के अनुसार, राधामाधव का अत्यंत रमणीय पारस्परिक प्रेम ही वृन्दावन के रूप में मूर्तिमान हुआ है। रसिक-उपासक एवं रसिक-शिरोमणि श्यामाश्याम समान रूप से इस प्रेम से आसक्त हैं और प्रेम-रति समानरूप से दोनों के रसानुभव का आधार बनी हुई है। वृन्दावन की प्रेमरति-रूपता के बडे़ सुंदर वर्णन राधावल्भीय वाणियों में मिलते हैं। श्रीध्रुवदास एक स्थान पर कहते हैं ‘वृन्दावन सुहाग का बाग है जो रस में पगा हुआ है। यहाँ की प्रीतिलता में रूप-रंग के दो फूल[5] लग रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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