हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 53

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-हित की रस-रूपता


प्रेम मदन के सिंधु द्वै बहत रहत दिन हीय।
कबहुँ बिबस चेतत कबहुँ छिन छिन प्‍यारी पीय।।
छिन छिन प्‍यारी पीय मधुर रस बिलसत ऐसे।
सूक्ष्‍म प्रेम की बात कहौ कोऊ बरनै कैसे।।

यह सूक्ष्‍म मधुर-रस प्रेम और मदन किंवा प्रेम और नेम के नित्‍य योग से नित्‍य निष्‍पन्‍न रहता है। इस नित्‍य-रस के दोनों तत्‍वों-प्रेम ओर नेम-का स्‍पष्‍टीकरण श्री ध्रुवदास ने इस नूतन, उज्‍जवल, सरस, मादक, स्निग्‍ध एवं स्‍वच्‍छंद भाव है। नेम भी भावरूप है। वह आदि-अंत युक्‍त और आकृतिरूप एवं परिणाम रूप है। ‘नेम’ को समझने के लिये तीन उदाहरण दिये गए हैं। पहिला उदाहरण रँगे हुए वस्‍त्र का है। लाल रँगा हुआ वस्‍त्र वस्‍त्र ही रहता है उसमें लाल रंग का योग हो जाता है। यहाँ पर वस्‍त्र प्रेम है और लाल रंग नेम है। दूसरा उदाहरण पात्र और उसकी आकृति का है। पात्र प्रेम है और आकृति नेम है, ‘जो किया जाय और फलित हो’ उसको नेम कहते हैं। तीसरा उदाहरण कनक-कुंडल का है। कनक से कुंडल गढ़े जाते हैं इसलिये वे नेम हैं और एक रस रहने वाला कनक प्रेम हैं। प्रेम के नेम के कुछ उदाहरण देखना, हँसना, बोलना, मान तथा कोक के विलासादिक दिए गये हैं। नित्‍य एकरस रहने वाले प्रेम के साथ यह सब बनने मिटने वाली क्रियाएं, आकृतियां एवं परिणाम ‘यंत्रित’ रहते हैं। नवधा भक्ति भी नेम है जो प्रेमलक्षण भक्ति के उदय के बाद प्रेम में लीन होकर रहती है।

साधारणतया ‘नेम’ से उन विधिविधानों, क्रियाकलापों एवं क्रिया-परिणामों का बोध होता है, जिनका नाश प्रेम के उदय के साथ हो जाता है। ‘प्रेम में नेम नहीं होता’ यह बात प्रसिद्ध है। किंतु श्रीध्रुवदास कहते हैं कि, प्रेम के उदय के साथ वही नेम नष्‍ट होते हैं जो उससे भिन्‍न होते हैं; जो उससे जुड़े हुए हैं[1] वे कैसे नष्‍ट हो सकते हैं? इन नित्‍य-यंत्रित नेमों के कारण ही मधुर प्रेम मधुर-रसबना रहता है और इसी से प्रेम और नेम को रस-पट का तानाबाना कहा गया है। श्रीध्रुवदास ने मधुर प्रेम से यंत्रित नेमों का ‘मदन’ किंवा काम भी कहा है। विद्वानों ने श्रृंगार शब्‍द की उत्‍पत्ति ‘श्रृंग’ से बतलाई है जिसका अर्थ ‘मन्‍मथ’ का उद्भेद है। लोक के श्रृंगार की निष्‍पत्ति भी रति[2] और मन्‍मथ के योग से होती है किंतु यहाँ यह दोनों प्राकृत होते हैं। प्राकृत काम का अवसान उपरति में होता है और उसके साथ रति भी उपरित-सी प्रतीत होने लगती है। इसीलिये यहाँ का श्रृंगार अनित्‍य होता है। अप्राकृत प्रेम नित्‍य नूतन बनने वाला भाव है और उसके साथ नित्‍य यंत्रित रहने वाला काम भी उसी के समान नित्‍य–नूतन बनता रहता है। नित्य नूतन बनने वाले काम को अप्राकृत काम कहा जाता है। अप्राकृत काम भी काम ही है। उसमें काम के अनेक लक्षण प्रगट रहते हैं। श्रीहित हरिवंश ने अपने एक पद में बताया है कि पशुपति ने काम को अपनी क्रोधाग्नि में भस्‍म कर दिया था, नागरी श्‍यामा ने उसके पुन: जीवित किया और उसको अंगीकार करके नित्‍य नूतन बना दिया।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यंत्रित हैं
  2. प्रेम
  3. हि. चतु. 56

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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