हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 56

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-हित की रस-रूपता


वृन्‍दावन रस मोहि भावै हो।
ताकी हौं बलि जाऊ सखीरी जो मोहि आनि सुनावै हो।।
वेद पुराण औ भारत भाखै सो मोहि कछु न सुहावै हो।
मन वचक्रम स्‍मृतिहू कहत है मेरे मन नाहिं आवै हो।।
'कृष्‍ण कृपा तब ही भलै जानौ रसिक अनन्‍य मिलावै हो।'
‘व्‍यासदास’ तेई बडी भागी जिनके जिय यह आवै हो।।[1]

अन्‍यत्र उन्‍होंने कहा है- ‘इस रस का पान करके मेरा मन नवधाभक्ति एवं भागवत कथा की रति से ऊबने लगा है। इस रस के उपासक ‘अनन्‍य’ समुदाय की र‍हनि-कहनि सबसे भिन्‍न है।’

यहि रस नवधाभक्ति उबीठी रति भागौत कथा की।
रहनि कहनि सबही तै न्‍यारी ‘व्‍यास’ अनन्‍य सभा की।।[2]

इस नित्‍य–निष्‍पन्‍न रस का अनुभव केवल कृपालभ्‍य माना गया है। प्रेमदेव की जिस पर सहज कृपा होती है वही इसके दर्शन करता है। प्रेम की सहज कृपालुता प्रसिद्ध है। कृपा लाभ होने पर उसी प्रेम के अन्‍दर, जिसका अनुभव जीव-मात्र को है, वह झरोखा खुल जाता है जिसने प्रेम के वास्‍तविक रूप को बन्‍द कर रखा है। ‘सहज कृपा के बल से खुले हुए प्रेम-झरोखे से ही इस नित्‍य–निष्‍पन्‍न रस के दर्शन होते हैं। कृपा के अतिरिक्‍त उस रस की प्राप्ति का अन्‍य कोई साधन नहीं है।

यह रस सझुनि कौं कछू नाहिन आन उपाय।
प्रेम दरीची जो कबहूँ सहज कृपा खुलि जाय।।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. व्‍यासवाणी-पृ. 73-74
  2. व्‍यासवाणी- पृ. 110
  3. ध्रुवदास-प्रेमावली

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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