हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 172

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
उपासना-मार्ग


व्यवहार-सिद्धि के लिये भी अनन्य प्रेमी को अपने इष्ट के अतिरिक्त अन्य किसी का आश्रय ग्रहण नहीं करना चाहिये। गोस्वामी व्रजलाल जी कहते हैं कि ‘पुण्यवान पुरुष’ को पुत्रादि के निमित्त शीतला की उपासना नहीं करनी चाहिये। प्रताप-वृद्धि, वैभव-लाभ और व्यापार-सिद्धि के लिये क्षुद्र देवताओं का आश्रय नहीं लेना चाहिये। अपनी जीविका के लिये हरिभक्ति शून्य मनुष्यों की सेवा नहीं करनी चाहिये। उसको हृदय में इस प्रकार का दृढ़ विश्वास रखना चाहिये कि अनन्याश्रय साधु पुरुषों के योगक्षेम का निर्वाह करने वाले श्री हरि सर्वोत्कृष्ट विराजमान हैं।’

नौ पुत्रादिनिमित्त यत्र सुकृती संपूजयेत् शीतलां,
नान्यान क्षुद्रसुरान्प्रताप विभव व्यापारणार्थ यजेतू।
नो वा जीवन हेतवेऽपि विमुखान्मत्यांश्व संसेवये।
योगक्षेमकरो हरिर्विजयतेऽनन्याश्रवायाणां सताम्।।[1]

अनन्य प्रेमी को अन्य साधन-मार्गों से भी सम्पूर्णतया विरत रहना चाहिये। अनन्य प्रेमियों का यह प्रत्यक्ष अनुभव है कि ‘विधि पूर्वक किये गये योग, यज्ञ, तप, व्रत, नियम, तीर्थ-यात्रा, तीर्थ-स्नान, अनंत दान आदि से आत्मा वैसा शुद्ध नहीं होता जैसा श्री वृन्दावनांतर्गत यमुना-तट के कुंज प्रदेश में विराजमान श्री राधावल्लभ के चरण कमल के भजनानंद से होता है।’

योगैर्यागै स्तपोभिव्रतनियमगणैस्तीर्थ यात्रादिभिनै,
स्नानै र्दानैरमंतैर्विधिवदपि कृतै शुष्द्यते तादृगात्मा।
श्रीमद्वृन्दावनान्तर्गततरवितनायातीर कुंज प्रदेशे,
श्री राधावल्लभस्यांघ्रि कमल भजनानंद तोयादृगेषः।।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. से. वि. 63
  2. से. वि. 66

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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