श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
उपासना-मार्ग
अनन्य कहाइवौ अतिहो बाँको। उपासक की सम्पूर्ण दशायें भजन के साथ मिलने का मतलब यह है कि ‘उसका शरीर अपने धर्म के पालन में अनन्य भाव से दृढ़ होना चाहिये, उसका चित रस-रीति के अनुशीलन में अनन्य भाव से रत रहना चाहिये, उसकी बुद्धि रस सिद्धान्त के विवेचन में अनन्य भाव से प्रयुक्त होनी चाहिये और उसका अहंकार सेवक-रूप में अनन्य भाव से विलय होना चाहिये। तन अनन्य निज धर्म दृढ़, रस अनन्य दृढ़ चित्त। इस दोहे में आये हुए निजधर्म रस, रस-सिद्धान्त और सेवक शब्दों का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है, ‘नवधा भक्ति की रीति से इष्ट और उपासक की उपासना ही धर्म है, नित्य विहार की रस रीति ही रज है, सेवक वाणी में कहा गया सिद्धान्त ही रस-सिद्धान्त है और अनन्य दास भाव ही सेवक भाव है। अपने धर्म को छोड़कर यदि अन्य धर्म के पालन में शरीर लगेगा तो उसकी अनन्य धर्मिता नष्ट होगी, नित्य विहार रस को छोड़कर यदि चित्त को अन्य रस रुचेगा तो उसकी अनन्यता का निर्वाह नहीं होगा, रस के सिद्धान्त को छोड़ कर यदि बुद्धि अन्य सिद्धांतों में उलझेगी तो उसको लक्ष्य सिद्धि न होगी और सेवक भाव को छोड़ कर अहंकार यदि अन्य कोई आश्रय ग्रहण करेगा तो वह अनन्य न बन सकेगा।[2] स्वामी चतुर्भुजदास ने अनन्य प्रेमी के लक्षण इस प्रकार बतलाये हैं। ‘वह सुत और धन के निमित्त अन्य किसी देवता या दैत्य का स्पर्श नहीं करता। वह वाणी से न तो अन्य कुछ बोलता है और न नेत्रों से अन्य कुछ देखता है। वह कानों से न तो अन्य कुछ सुनता है और न चित्त से अन्य कुछ विचार करता है। वह मन और वाणी में केवल हरि स्मरण रूपी कर्म करता है। वह सम्पूर्ण संसार के जंतुओं में एक मात्र कृष्ण की सत्ता को देखता है। अनन्य व्यक्ति केवल दो को ही भजता है, यातो हरिजन को या हरि को।’[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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