श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
सहचरी
सखियों की प्रीति का चौथा भाव आत्मवत् भाव है। मनीषियों ने आत्मा को सबसे प्रिय माना है। अन्य सब पदार्थों में आत्मा के कारण प्रियता रही हुई है। सखियों की आत्मा और युगल में कोई अन्तर नहीं है। इनके अद्भुत प्रेम ने ही इनको इस स्थिति में ला दिया है। हित अनूप जी बतलाते हैं कि ‘प्रेम की प्रतीति का प्रताप ही ऐसा है कि प्रियतम आपमय हो जाता है और आप प्रियतममय हो जाता है, दोनों में कोई भेद नहीं रहता। जहाँ अपना सम्पूर्ण सुख होता है वहाँ प्रियतम के मोद की प्रतीति होती है और जहाँ प्रियतम का सम्पूर्ण सुख होता है वहाँ अपनी सुख-रीति होती है। दोनों के बीच में अपना पराया करने का कोई कारण नहीं रह जाता। अपनपे के प्रियतम के साथ अभिन्न बनते ही अपने सुख और प्रियतम के सुख में भेद नहीं रहेगा।' आप मई प्रीतम जहाँ औ प्रीतम मय आप। सखियों के तत्सुख और स्वसुख में कोई भेद नहीं है। हितप्रभु अपने सहज सखी-स्वरूप से श्यामाश्याम के परम सुख का दर्शन करके कहते हैं कि ‘आनंद में निमग्न दोनों प्रियतम डगमगाती चाल से वृन्दावन की सुन्दर एवं सघन कुंज-गली में विहार कर रहे हैं। यह दोनों लाल-ललना परस्पर मिलकर मेरे मन को शीतल करते हैं।’ पग डगमगत चलत बन बिहरत रुचिर कुंज घन खोर। यहाँ पर लाल-ललना के सुख और हितजी के सुख में कोई अन्तर दिखलाई नहीं पड़ता और यहीं सखियों के आत्मवत् भाव का स्वरूप है। सखियों के सुखानुभव की प्रक्रिया में विलक्षणता यह है कि यह श्यामा और श्याम दोनों के साथ सहज रूप से एकात्म-भाव रखती हैं। श्यामसुन्दर के मन से मन मिलाकर यह प्रिया-चरण-माधुरी का आस्वाद करती हैं एवं अपनी स्वामिनी के मन से मन मिलाकर यह उनके प्रीति-परवश प्रियतम का लालन करती रहती हैं। ‘इन परम प्रेमी युगल के अद्भुत मनों को अपने एक मन में लेकर सहचरी-गण इनकी आसक्ति का अबाध उपभोग करती हैं और पिय-प्यारी के सुख को दृष्टि में रखकर उनकी टहल करती रहती हैं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हि. च. 31
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