श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
सहचरी
हौं जु कछु कहत निज बात सुनि मान सखि, राधा-मोहन के प्रति सखियों की प्रीति का तीसरा भाव पतिवत् भाव है। जिस प्रकार पुत्रवत् भाव एवं पुत्रभाव में भेद है, उसी प्रकार पतिवत् भाव में और पतिभाव में अंतर है। गोपीजनों का नंदनंदन में पतिभाव था, वे सब श्रीकृष्ण कान्ता थीं। सखीजन युगल की प्रतिवत् भाव से करती हैं किन्तु वे अपने को कृष्ण–कान्ता नहीं मानतीं। वास्तव में युगल-उपासना में कान्ताभाव के लिये अवकाश नहीं है। कान्ताभाव वहीं उत्पन्न होता है, जहाँ अकेले घनश्याम प्रीति के विषय होते हैं। जहाँ युगल का प्रेम–माधुर्य प्रीति विषय होता है वहाँ उसका आस्वाद-सखी भाव के द्वारा ही संभव है। अन्य सिद्धान्तों में समस्त गोपीजन श्रीकृष्ण की स्वरूप शक्ति होने के कारण नित्य नायिका हैं। राधाकृष्ण की प्रेम-लीला में सहायक होने के लिये उन्होंने सखी-भाव अंगीकार किया है। हम जानते हैं कि राधावल्लभीय सिद्धान्त में सखियाँ युगल की पारस्परिक रति का रूप हैं और यहाँ पर एक मात्र नायक श्री नंदनंदन और एक मात्र नायिका श्रीवृषभानुनंदिनी हैं। नायिका किंवा श्रीकृष्ण-कान्ता न होते हुए भी इन सखियों की प्रीति पातिव्रत्य से पूर्ण है और इनके मन, वाणी और कर्म एक मात्र युगल की सेवा में लगे हुए हैं। श्यामा-श्याम सुहाग की मूर्ति हैं, सहचरी-गण इन दोनों के सुहाग से सुहागवती हैं। युगल का सुरंग अनुराग सखियों की माँग का सैंदुर है। युगल की सखियों के प्राण-धन हैं। इनकी कृपा इनके सुख का एक मात्र साधन है। राधमोहन सदैव अपनी दासियों की रुचि के अनुकूल रहकर उनके मन की साध पुजाते रहते हैं यह देखकर आनंद के रंग से भरी हुई सखियाँ फूली नहीं समातीं। इन सब के एक मात्र जीवन दोनों वृन्दावन-चन्द्र हैं। फूली अंग ने मात है भरीं रंग आनंद। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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