हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 150

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
सहचरी

टहल लिये पिय प्यारी आगे छिनपल कहूँ न जाहीं।
दोऊ मन कौं लिये हिये में कुंज महल विलसाहीं।।[1]

सखियाँ युगल की आसक्ति का स्वरूप हैं अतः इनके द्वारा किया गया युगल की आसक्ति का उपभोग स्वरूप का ही उपभोग है। वृन्दावन में हित-रूप सखियों का अनुपम हित ही मानो गौर-श्याम बनकर उनके मन और नेत्रों को सुख दे रहा है। हित के अद्भुत रूप एवं उसकी अद्भुत सेवा-प्रणाली का सुन्दर वर्णन करते हुए श्री भोरी सखी पूछते हैं ‘जिसकी प्यास तृप्ति रूप है और तृप्ति प्यासमयी है, उस प्रेम के अनूठे खेल को मैं अपने हृदय में कैसे लाऊँ ? जहाँ विरह मिलन रूप है और मिलन विरह रूप हैं, जहाँ विरह और मिलन एक हो रहे हैं, वहाँ मैं रसास्वाद कैसे करूँ ? जहाँ प्रिया प्रियतम रूप हैं और प्रियतम प्रिया रूप हैं, जहाँ प्रिया और प्रियतम परस्पर ओतप्रोत हो रहे हैं, वहाँ मैं इन दोनों को कैसे मिलाऊँ ? युगल की हृदय रूपी कुंज में जहाँ युगल की केलि हो रहीं है, वहाँ युगल हृदय की वृति बनकर मैं कैसे इन दोनों को लाड़ करूँ ? मन जिसको पाता नहीं है और बुद्धि का जहाँ प्रवेश नहीं है, अहा, ऐसे अद्भुत हित-रूप को मैं कैसे प्राप्त करूँ?’

कौन प्यास तृप्ति रूप, कौन तृप्ति प्यासमई,
प्रेम को अनूठौ खेल कैसे हिये लाइये?
कौन विरह मिलन रूप, विरह रूप मिलन कौन,
विरह मिलन एक जहाँ कौन स्वाद पाइये ?
कौन प्रिया पीय रूप, प्रिया रूप पीय कहाँ,
प्रिया पीय एकमेक कैसे कै मिलाइये ?
जुगल हीय कुंज जहाँ, जुगल केली होत तहाँ,
जुगल हृदय-वृत्ति होय कैसे कै लड़ाइये ?
मन हू न पावै जौन, बुद्धि हू न पहुँचे जहाँ,
अद्भुत हित रूप, हहा भोरी कैसे पाइये?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गो. जतनलाल जी

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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