जीता न जो मन, योग है दुष्प्राप्य मत मेरा यही।
मन जीत कर जो यत्न करता, प्राप्त करता है वही॥36॥
अर्जुन बोले-
जो योग-विचलित यत्नहीन, परन्तु श्रद्धावान् हो।
वह योग-सिद्धि न प्राप्त कर, गति कौन सी पाता कहो?। 37॥
मोहित, निराश्रय, ब्रह्म-पथ में, हो उभय पथ-भ्रष्ट क्या।
वह बादलों-सा छिन्न हो, होता सदैव बिनष्ट क्या ?। 38॥
हे कृष्ण! करुणा कर सकल सन्देह मेरा मेटिये।
तज कर तुम्हें है कौन यह भ्रम दूर करने के लिये ?। 39॥
श्रीभगवान् बोले-
इस लोक में, परलोक में, वह नष्ट होता है नहीं।
कल्याणकारी-कर्म करने में नहीं दुर्गति कहीं॥40॥