एकत्व-मति से जान जीवों में मुझे नर नित्य ही।
भजता रहे जो, सर्वथा कर कर्म मुझमें है वही॥31॥
सुख-दुःख अपना और औरों का समस्त समान है।
जो जानता अर्जुन! वही योगी सदैव प्रधान है॥32॥
अर्जुन बोले-
जो साम्य-मति से प्राप्य तुमने योग मधुसूदन! कहा।
मन की चपलता से महा अस्थिर मुझे वह दिख रहा॥33॥
हे कृष्ण! मन चञ्चल, हठी, बलवान् है दृढ़ है घना।
मन साधना दुष्कर दिखे जैसे हवा का बाँधना॥34॥
श्रीभगवान् बोले-
चंचल असंशय मन महाबाहो! कठिन साधन घना।
अभ्यास और विराग से पर पार्थ! होती साधना॥35॥