करता रहे सब कर्म भी, मेरा सदा आश्रय धरे॥
मेरी कृपा से प्राप्त वह अव्यय सनातन पद करे॥56॥
मन से मुझे सारे समर्पित कर्म कर, मत्पर हुआ॥
मुझमें निरंतर चित्त धर, सम-बुद्धि में तत्पर हुआ॥57॥
रख चित्त मुझमें, मम कृपा से दुःख सब तर जायेगा॥
अभिमान से मेरी न सुनकर, नाश केवल पायेगा॥58॥
‘मैं नहीं करूँगा युद्ध’ तुम अभिमान से कहते अभी॥
यह व्यर्थ निश्चय है, प्रकृति तुमसे करा लेगी सभी॥59॥
करना नहीं जो चाहता है, मोह में तल्लीन हो॥
वह सब करेगा स्वभावज कर्म के आधीन हो॥60॥