सुजान-रसखान पृ. 71

सुजान-रसखान

नेत्रोपालंभ

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सवैया

बात सुनी न कहूँ हरि की न कहूँ हरि सों मुख बोल हँसी है।
काल्हि ही गोरस बेचन कौं निकसी ब्रजवासिनि बीच लसी है।।
आजु ही बारक 'लेहु दही' कहि कै कछु नैनन मे बिहसी है।
बैरिनि वाहि भई मुसकानि जु वा रसखानि के प्रान बसी है।।162।।

ग्‍वालिन द्वैक भुजान गहैं रसखानि कौं लाईं जसोमति पाहैं।|
लूटत हैं कहैं ये बन मैं मन मैं कहैं ये सुख लूट कहाँ हैं।।
अंग ही अंग ज्‍यौं ज्‍यौं ही लगैं त्‍यौं त्‍यौं ही न अंग ही अंग समाहैं।
वे पछलैं उलटै पग एक तौ वे पछलैं उलटै पग जाहैं।।163।।

दूर तें आई दुरे हीं दिखाइ अटा चढ़ि जाइ गह्यौ तहाँ आरौ।
चित कहूँ चितवै कितहूँ, चित्‍त और सौं चाहि करै चखवारौ।
रसखानि कहै यहि बीच अचानक जाइ सिढ़ी चढ़ि खास पुकारो।
रूखि गई सुकुवार हियो हनि सैन पटू कह्यौ स्‍याम सिधारौ।।164।।

दोहा

बंक बिलोकनि हँसनि मुरि, मधुर बैन रसखानि।
मिले रसिक रसराज दोउ, हरखि हिये रसखानि।।165।।

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