सवैया
भौंह भरी सुथरी बरुनी अति ही अधरानि रच्यौ रंग रातो।
कुंडल लोल कपोल महाछबि कुंजन तैं निकस्यौ मुसकातो।।
छूटि गयौ रसखानि लखै उर भूलि गई तन की सुधि सातो।
फूटि गयौ सिर तैं दधि भाजन टूटिगौ नैनन लाज को नातो।।54।।
जात हुती जमुना जल कौं मनमोहन घेरि लयौ मग आइ कै।
मोद भर्यौ लपटाइ लयौ पट घूँघट ढारि दयौ चित चाइ कै।
और कहा रसखानि कहौं मुख चूमत घातन बात बनाइ कै।
कैसे निभै कुल-कानि रही हिये साँवरी मूरति की छबि छाइ कै।।55।।
जा दिन ते निरख्यौ नंदनंदन कानि तजी कर बंधन टूट्यौ।
चारु बिलोकिन कीनी सुमार सम्हार गई मन मोर ने लूट्यौ।
सागर कों सलिला जिमि धावे न रोकी रुकै कुलको पुल टुट्यौ।
मत्त भयौ मन संग फिरे रसखानि सरूप सुधारस घूट्यौ।।56।।