सहज गीता -रामसुखदास पृ. 98

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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अठारहवाँ अध्याय

(मोक्ष संन्यास योग)

पृथ्वी में, स्वर्गादि लोकों में तथा उनमें रहने वाले मनुष्य, देवता, असुर आदि संपूर्ण चर-अचर प्राणियों में और इनके सिवाय अनन्त ब्रह्माण्डों में रहने वाली कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो अर्थात् संपूर्ण सृष्टि त्रिगुणात्मक है।
हे परंतप! अनेक जन्मों में किए हुए कर्मों के संस्कारों के अनुसार मनुष्य का जैसा स्वभाव बनता है, उसी के अनुसार उसमें सत्त्व, रज और सम- तीनों गुणों की वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। इन गुणवृत्तियों के अनुसार ही ब्राह्मण, [क्षत्रिय]], वैश्य और शूद्र के कर्मों का अलग-अलग विभाग किया गया है। कारण कि मनुष्य में जैसी गुणवृत्तियाँ होती हैं, वैसा ही वह कर्म करता है। स्वाभाविक कर्म करने में उसे परिश्रम भी नहीं होता।
(ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म-) 1. मन का निग्रह करना, 2. इंद्रियों को वश में करना, 3. धर्मपालन के लिए प्रसन्नतापूर्वक कष्ट सहना, 4. बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, 5. दूसरों के प्रति क्षमाभाव, 6. शरीर, वाणी, मन आदि में सरलता रखना, 7. वेद, शास्त्र आदि का ठीक तरह से ज्ञान होना, 8. यज्ञ विधि का ठीक तरह से अनुभव होना, और 9. परमात्मा, वेद आदि में श्रद्धा-विश्वास होना- ये सब 'ब्राह्मण' के स्वाभाविक कर्म (गुण) हैं।
(क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म-) 1. शूरवीरता, 2. तेज, 3. धैर्य, 4. प्रजा के संचालन आदि की विशेष चतुरता, 5. युद्ध में कभी पीठ न दिखाना, 6. दानवीरता, और 7. शासन करने का भाव- ये 'क्षत्रिय' के स्वाभाविक कर्म हैं।


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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