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अठारहवाँ अध्याय
(मोक्ष संन्यास योग)
मनुष्य शरीर, वाणी और मन के द्वारा शास्त्रविहित अथवा शास्त्रनिषिद्ध जो कुछ भी कर्म करता है, वे इन पाँच हेतुओं से ही होते हैं, स्वरूप (आत्मा)- से नहीं। परंतु ऐसा होने पर भी जो दुर्बुद्धि मनुष्य अपने स्वरूप को कर्ता मान लेता है, उसकी मान्यता ठीक नहीं है; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है अर्थात् उसने अपने विवेक को महत्त्व नहीं दिया है।
परंतु जिसमें ‘मैं कर्ता हूँ’- ऐसा अहंकृतभाव नहीं है और जिसकी बुद्धि में कर्मफल की इच्छा नहीं है, ऐसा जीवन्मुक्त महापुरुष यदि युद्ध में इन संपूर्ण प्राणियों को मार डाले, तो भी वह मारता नहीं; क्योंकि उसमें कर्तापन नहीं है और वह बँधता भी नहीं; क्योंकि उसमें भोक्तापन नहीं है। तात्पर्य है कि उसका न क्रियाओं के साथ संबंध है, न फल के साथ संबंध है। [अहंता और फलेच्छा होने से ही पाप लगता है। जैसे, गंगा में कोई डूबकर मर जाता है तो गंगा को पाप नहीं लगता और कोई उसके जल से अपनी प्यास बुझाता है, खेती करता है तो गंगा को पुण्य नहीं लगता; क्योंकि गंगा में अहंता और फलेच्छा नहीं है।]
ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता (जानने वाला)- इन तीनों से कर्म करने की प्रेरणा होती है तथा करण, कर्म और कर्ता- इन तीनों से कर्म का संग्रह होता है अर्थात् कर्म फल देने वाला होता है। जिस शास्त्र में गुणों के संबंध से पदार्थ के भिन्न-भिन्न भेदों की गणना की गयी है, उस शास्त्र में गुणों के भेद से ज्ञान, कर्म और कर्ता के सात्त्विक, राजस और तामस- ये तीन भेद कहे गये हैं। उन्हें तुम ध्यान से सुनो।
(तीन प्रकार के ज्ञान-) जिस ज्ञान के द्वारा साधक संपूर्ण विभक्त (अलग-अलग) प्राणियों में विभाग रहित एक अविनाशी सत्ता को देखता है, वह ज्ञान ‘सात्त्विक’ है। जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य संपूर्ण अलग-अलग प्राणियों में अविनाशी सत्ता को भी अलग-अलग देखता है, वह ज्ञान ‘राजस’ है। जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य एक शरीर में ही पूर्णरूप से आसक्त रहता है अर्थात् उत्पन्न तथा नष्ट होने वाले शरीर को ही अपना स्वरूप मानता है, और जो ज्ञान युक्तिसंगत नहीं है, विवेक से रहित है और तुच्छ है, वह ज्ञान ‘तामस’ है। तामस ज्ञान वास्तव में अज्ञान ही है।
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